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वर्धमानचरित
भूतिने राज्यका विस्तार किया। युवराज विश्वनन्दीने एक सुन्दर उपवन बनवाया । उसे देखकर विशाखभूतिके पुत्र विशाखनन्दीका मन ललचा गया। जब विश्वनन्दो शत्रको पराजित करनेके लिये बाहर गया हुआ था तब विशाखनन्दीने उस उपवनपर अपना अधिकार कर लिया। विशाखभूतिने पुत्रके व्यामोहमें आकर इसका प्रतिकार नहीं किया। वापिस आनेपर विश्वनन्दीने विशाखनन्दीको परास्त कर अपना उपवन वापिस ले लिया। कुछ समय बाद विशाखभूति और विश्वनन्दीने मुनिदीक्षा ले ली। विश्वनन्दी मुनिमुद्रामें चर्याके लिए मथुरानगरीमें प्रविष्ट हुआ। विशाखनन्दो उस समय राज्यभ्रष्ट होकर मथुरामें ही वेश्याकी छतपर बैठा था । मुनिराज विश्वनन्दीको एक पशुने उपसर्ग किया जिसे देखकर विशाखनन्दीने उसका उपहास किया। उपहासके कारण वे आहारके बिना ही वनमें लौट गये और निदानबन्ध कर महाशुक्रस्वर्गमें महेन्द्रकल्प नामक देव हुए । विशाखभूति भी दशमस्वर्गमें देव हुआ।
विशाखनन्दीका जीव अलकापुरीके राजा मयूरग्रीवकी रानी कनकमालाके अश्वग्रोव नामका पत्र हुआ जो प्रतिनारायणपदको प्राप्त था और विशाखभूति तथा विश्वनन्दीके जीव सुरमादेशके पोदनपुर नगरमें स्थित राजा प्रजापतिकी जयावति और मगवती रानीके क्रमसे विजय और त्रिपृष्ठ नामक पुत्र हुए। विजय बलभद्रपदके धारक और त्रिपृष्ठ नारायणपदके धारक हए। उस समय राजा प्रजापतिके राज्यमें एक सिंह भारी उत्पात कर रहा था, उसे त्रिपृष्ठने नष्टकर बहुत भारी यश प्राप्त किया। विजयाधकी दक्षिण श्रेणीके रथनपुर नगरका राजा ज्वलनजटी अपनी पुत्री स्वयंप्रभाका विवाह त्रिपृष्ठके साथ करना चाहता था पर अश्वग्रीवको यह बात रुचिकर नहीं थी।
ज्वलनजटी अपनी पुत्री स्वयंप्रभाको लेकर पोदनपुरके उद्यानमें आ गया। वहाँ स्वयंवरका आयोजन किया गया जिससे स्वयंप्रभाका त्रिपृष्ठके साथ विवाह हो गया। जब अलकापुरीके राजा अश्वग्रोवको इसका समाचार मिला तब वह क्रुद्ध होकर भूमिगोचरियोंको दण्ड देनेके लिये चला। अश्वग्रीव नहीं चाहता था कि विद्याधरी कन्याके साथ भूमिगोचरीका विवाह हो।
अश्वग्रीवके आक्रमणका समाचार प्राप्तकर पोदनपुरके राजा प्रजापतिने विमर्श करने के लिए मन्त्रिमण्डलको बुलाया। कुछ मन्त्रियोंने क्षमा तथा शान्ति धारण करनेकी बात कही परन्तु विजयने मन्त्रियोंके इस सुझावका खण्डन किया तथा कहा कि जो कारणवश कुपित होता है उसपर क्षमा करना शोभा देता है पर जो अकारण ही कुपित होता है उसपर क्षमा करना शोभाकी बात नहीं है उसका तो प्रतिकार करना ही शोभा देता है । यह कहकर विजय और त्रिपृष्ठ दोनों भाई युद्धके लिये तैयार हो गये।
___ युद्ध प्रारम्भ होनेके पूर्व अश्वग्रीवका दूत प्रजापतिको सभामें आकर कहने लगा कि स्वयंप्रभाको अश्वग्रीवके पास भेजकर सन्धि कर लीजिये परन्तु त्रिपृष्ठने फटकार देते हुए युद्धके लिये उसका आह्वान किया।
___ अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठका युद्ध हुआ। दोनों ओरकी सेनाओंने अपने पौरुषका प्रदर्शन किया। जब अश्वग्रीवको अन्य आयुधोंके प्रयोगमें सफलता नहीं मिली तब उसने शक्तिशाली चक्रका प्रयोग किया परन्तु वह चक्र त्रिपृष्ठकी तीन प्रदक्षिणाएँ देकर उसके सामने खड़ा हो गया । त्रिपृष्ठने अश्वग्रीवको एक बार फिर सचेत किया परन्तु वह अपनी दुर्भावनासे विरत नहीं हआ। अन्तमें उसी चक्ररत्नसे अश्वग्रीवका शिरश्छेदन कर त्रिपृष्ठने विजय प्राप्त की।
विजयी विजय और त्रिपृष्ठने बड़े समारोहके साथ नगरमें प्रवेश किया। अनेक राजाओं और भाइयोंके द्वारा अभिषिक्त त्रिपृष्ठने सर्वप्रथम जिनेन्द्र भगवानकी पूजा की । पश्चात् दिग्विजयके लिये प्रस्थान किया।