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वर्धमानचरित
और माताका नाम पटमति और वैरेति था। माता-पिता अत्यन्त मुनिभक्त थे इसलिये उन्होंने बालक असगक विद्याध्ययन मुनियोंके ही पास कराया था। असगकी शिक्षा श्रीनागनन्दी आचार्य और भावकीर्ति मुनिराजके चरणमूलमें हुई थी। यतश्च असगने वर्धमानचरितकी प्रशस्तिमें अपनेपर ममताभाव प्रकट करनेवाली संपत् श्राविकाका और शान्तिनाथपुराणकी प्रशस्तिमें अपने मित्र जिनाप ब्राह्मणमित्रका उल्लेख किया है, अतः प्रतीत होता है कि यह, दोनों ग्रन्थोंके रचनाकालमें गृहस्थ ही थे मुनि नहीं । पश्चात् मुनि हुए या नहीं, इसका निर्देश नहीं मिलता । यह चोलदेशके रहनेवाले थे और श्रीनाथ राजाके राज्यमें स्थित विरला नगरीमें इन्होंने आठ ग्रन्थोंकी रचना की थी। यतश्च इनकी मातृभाषा कर्णाटक थी, अतः जान पड़ता है कि इनके शेष ६ ग्रन्थ कर्णाटक भाषाके हों और वे दक्षिण भारतके किन्हीं भाण्डारोंमें पड़े हों या नष्ट हो गये हों। भाषाकी विभिन्नतासे उनका उत्तर भारतमें प्रचार नहीं हो सका हो ।
असगने शान्तिनाथपुराणमें रचनाकालका उल्लेख नहीं किया है परन्तु वर्धमानचरितमें 'संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्ते' श्लोक द्वारा उसका उल्लेख किया है । 'अंकानां वामतो गतिः' के सिद्धान्तानुसार 'दशनव'का अर्थ ९१० होता और उत्तरका अर्थ उत्तम भी होता है, अतः 'दशनवोत्तरवर्षयुक्त संवत्सरे'का अर्थ ९१० संख्यक उत्तमवर्षों से युक्त संवत्में, होता है । विचारणीय यह है कि यह ९१० शकसंवत् है या विक्रमसंवत् ? यद्यपि दक्षिण भारतमें शकसंवत्का प्रचलन अधिक है, अतः विद्वान् लोग इसे शकसंवत् मानते आते हैं परन्तु पत्राचार करनेपर श्रीमान् डा. ज्योतिप्रसादजी लखनऊने अपने ८-१०-७३ के पत्रमें यह अभिप्राय प्रकट किया है
-'रचनाकाल ९१० को मैं विक्रमसंवत् = ८५३ ई० मानता हूँ क्योंकि ९५० ई० के पंप, पोन्न आदि कन्नड कवियोंने इनकी प्रशंसा की है।
इनके निवास और पदकी चर्चा करते हुए भी उन्होंने लिखा है
'असग एक गृहस्थ कवि थे । नागनन्दीके शिष्य थे, आर्यनन्दीके वैराग्यपर इन्होंने महावीरचरितकी रचना की।'
'असग मूलतः कन्नड निवासी रहे प्रतीत होते हैं और संभव है . इनकी अन्य रचनाओंमेंसे अधिकांश कन्नडभाषामें ही हों । इनके आश्रयदाता तामिल प्रदेश निवासी थे । मद्रासके निकटवर्ती चोलमण्डल या प्रदेशमें ही, संभवतया तत्कालीन पल्लवा-नरेश-नन्दिपोतरसके चोलसामन्त श्रीनाथके आश्रयमें उसकी वरला नगरीमें इस ग्रन्थकी रचना की थी। एक नागनन्दीका भी उक्त काल एवं प्रदेशमें सद्भाव पाया जाता है ।
श्रवणबेलगोलके १०८ वें संख्यक शिलालेखसे ज्ञात होता है कि नागनन्दी नन्दिसंघके आचार्य थे।
असगके वर्धमानचरित और शान्तिनाथपुराण श्री पं० जिनदासजी शास्त्री फडकुले सोलापुर के द्वारा निर्मित मराठी अनुवाद के साथ क्रमशः वीर निर्वाण संवत् २४५७ (मार्च सन् १९३१) और वीर निर्वाण संवत् २४६२ (सन् १९३६) में श्री रावजी सखाराम दोशी सोलापुर द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं तथा वर्तमानमें अप्राप्य हैं। वर्धमानचरितका एक संस्करण महावीरचरित्रके नामसे श्रीमान पं० खबचन्द्र जी शास्त्रीकृत मात्र हिन्दी अनुवादके रूपमें वीर निर्वाण संवत् २४४४ में सूरतसे भी प्रकाशित हआ था। यह संस्करण भी अब अप्राप्य है । इस समय श्री ब्र० जीवराज ग्रन्थमालाके संचालकोंने उपयुक्त दोनों ग्रन्थोंको हिन्दी अनुवादके साथ पुनः प्रकाशित करनेका निश्चय किया है। तदनुसार अभी यह वर्धमानचरित प्रकाशित हो रहा है । शान्तिनाथपुराण आगे प्रकाशित होगा।