________________
१६
वर्धमानचरित
प्रकाशन रायबहादुर स्व० सेठ कल्याणमलजी इन्दौरने अपनी पूज्य मातेश्वरी श्री फूलीबाईके स्मरणार्थ कराया था। इसमें १६ पेजी फार्मके २७० पृष्ठ हैं । विद्वान् पण्डितजी समाजके प्रतिष्ठित विद्वान् थे । इसके अतिरिक्त अन्य अनेकों जीवकाण्ड तथा तत्त्वार्थाधिगमभाष्य जैसे ग्रन्थ भी आपके द्वारा अनूदित होकर प्रकाशित हुए हैं । मूल साथमें न होनेसे सम्पादनमें इसका उपयोग नहीं किया जा सका है । यह अब अप्राप्य है । सूरतसे प्रकाशित होनेके कारण इसका सांकेतिक नाम 'स' रक्खा गया है ।
असग कवि
वर्धमानचरित के रचयिता असग कवि हैं । इनके द्वारा रचित १ - वर्धमानचरित और २ - शान्तिनाथपुराण ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं । यद्यपि इन्होंने वर्धमानचरितके अन्तमें अपने द्वारा रचित आठ ग्रन्थोंकी सूचना दी है तथापि उनकी नामावली अप्राप्त होनेके कारण उनके विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता । वर्धमानचरित की प्रशस्ति इस प्रकार है
संवत्सरे
कृतं महावीरचरित्रमेतन्मया परस्वप्रतिबोधनार्थम् । सप्ताधिकत्रिंशभवप्रबन्धं पुरूरवाद्यन्तिमवीरनाथम् ।। १०२ ।। वर्द्धमानचरित्रं यः प्रव्याख्याति शृणोति च । तस्येह परलोकस्य सौख्यं संजायतेतराम् || १०३ ॥ दशनवोत्तरवर्षयुक्ते भावादिकीर्तिमुनिनायकपादमूले | मौद्गल्यपर्वतनिवांसवनस्थ संपत्सच्छ्राविका प्रजनिते सति वा ममत्वे ॥ १०४ ॥ विद्या मया प्रपठितेत्यसगाह्वयेन श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि । प्राप्यैव चोsविषये विरलानगर्यां ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ॥ १०५ ॥ मैंने पुरूरवा आदि लेकर महावीरपर्यन्त के सेंतीसभवोंका निदर्शन करानेवाला यह महावीरचरित स्वपरके प्रतिबोध के लिये रचा है ॥ १०२ ॥ जो इस वर्द्धमानचरित्रका व्याख्यान करता है और जो इसे सुनता है उसे इस लोक और परलोकका सुख अवश्य ही प्राप्त होता है ।। १०३ ।। ९१० संख्यक उत्कृष्ट वर्षोंसे युक्त संवत्सरमें श्रीभावकीर्ति मुनिराज के चरणमूलमें मुझ असगने विद्या पढ़ी । उस समय मौद्गल्य पर्वतपर स्थित निवासदनमें रहनेवाली संपत् नामक श्राविकाने मेरे साथ ममताभाव रक्खा अर्थात् पुत्रवत् मेरा पालन किया || १०४॥ विद्या पढ़नेके अनन्तर मैंने जनसमूहका उपकार करनेवाले श्रीनाथ राजाके राज्यमें जाकर चोल देशकी विरलानगरी में जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट आठ ग्रन्थोंकी रचना की ।। १०५ ॥
इन्हीं असगका बनाया हुआ शान्तिनाथपुराण है । उसकी निम्नलिखित प्रशस्ति में कविने अपना कुछ विशिष्ट परिचय दिया है
मुनिचरणरजोभिः सर्वदा भूतधात्र्यां प्रणति समय लग्नैः
उपशम इव मूर्त: शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः
पावनभूतमूर्धा |
पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ॥ १ ॥ तनुमपि तनुतां य: सर्वपर्वोपवास
स्तनुमनुपमधीः स्म प्रापयन्तं चिनोति ।
सततमपि विभूति भूयसीमन्नदान
प्रभृतिभिरुरु पुण्यं कुन्दशुभ्र यशश्च ॥ २ ॥