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प्रस्तावना
भक्ति परामविरतं समपक्षपातामातन्वृती वैरेतिरित्यनुपमा भुवि तस्य भार्या
पुत्रस्तयोरस
मुनिनिकायचतुष्टयेऽपि ।
सम्यक्त्वशुद्धिरिव मूर्तिमती इत्यवदातकीर्त्योरासीन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः ।
चन्द्रांशुशुभ्रयशसो भुवि नागनन्द्याचार्यस्य
पराभूत् ।। ३ ।।
शब्दसमयार्णवपारगस्य ॥ ४ ॥
तस्याभवद्भव्यजनस्य सेव्यः सखा जिनापो जिनधर्मयुक्तः । ख्यातोऽपि शौर्यात्परलोक भी रुद्विजाधिनाथोऽपि विपक्षनाथः ॥ ५ ॥ व्याख्यानशीलत्वमवेक्ष्य तस्य श्रद्धां पुराणेषु च पुण्यबुद्धेः । कवित्वहीनोऽपि गुरौ निबन्धे तस्मिन्नधासीदसगः प्रबन्धम् ॥ ६॥ चरितं विरचय्य सन्मतीयं सदलंकारविचित्रवृत्तबन्धम् । स पुराणमिदं व्यधत्त शान्तेरसग: साधुजनप्रमोहशान्त्यै ॥ ७ ॥
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इस पृथिवी पर प्रणाम करनेके समय लगी हुई मुनियोंकी चरणरजसे जिसका मस्तक सदा पवित्र रहता था, जो मूर्तिधारी उपशम भावके समान था तथा शुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त था ऐसा एक पटुमति नामका श्रावक था ।।१।। जो अनुपम बुद्धिसे सहित था तथा अपने दुर्बल शरीरको समस्त पर्वोंमें किये जाने वाले उपवासोंसे और भी अधिक दुर्बलताको प्राप्त कराता रहता था ऐसा वह पटुमति मुनियोंको आहारदान आदि देने निरन्तर उत्कृष्ट विभूति, विशाल पुण्य तथा कुन्दकुसुमके समान उज्ज्वल यशका संचय करता रहता था ॥२॥ उस पटुमतिकी वैरेति नामकी भार्या थी जो निरन्तर ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चारों प्रकारके मुनिसमूहमें उत्कृष्ट भक्ति रखती थी और ऐसी जान पड़ती थी मानों मूर्तिधारिणी सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट शुद्धि ही हो ||३|| निर्मल कीर्तिके धारक उन परमति और वैरेतिके असग नामका पुत्र हुआ। बड़ा होनेपर यह असग उन नागनन्दी आचार्यका शिष्य हुआ जो विद्वत्समूहमें प्रमुख थे, चन्द्रमाकी किरणोंके समान जिनका उज्ज्वल यश था और जो पृथिवीपर व्याकरण तथा सिद्धान्तशास्त्ररूपी सागरके पारगामी ॥४॥ असगका एक जिनाप नामका मित्र था । वह जिनाप भव्य जीवोंका सेवनीय था अर्थात् भव्य जीव उसका बहुत सम्मान करते थे, जैनधर्ममें आसक्त था, शौर्यगुणसे प्रसिद्ध होनेपर भी वह परलोकभीरु था --- शत्रुओंसे भयभीत रहता था ( पक्ष में नरकादि परभवसे भयभीत रहता था) और द्विजाधिनाथ (पक्षियों का स्वामी -- गरुड़) होकर भी ( पक्षमें ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यवर्ण में प्रधान होकर भी) पक्षपात से ( पङ्खों के संचारसे) रहित था ( पक्ष में पक्षपातसे रहित था अर्थात् स्नेहवश किसी के साथ पक्षपातका व्यवहार नहीं करता था ) ॥५॥ पवित्र बुद्धिके धारक उस जिनापको व्याख्यान - कथोपकथन अर्थात् नानाकथाओंका श्रवण करना अत्यन्त रुचिकर था तथा पुराणोंमें भी उसकी श्रद्धा बहुत थी, इसका विचार कर उसका प्रबल आग्रह होनेपर असगने कवित्वशक्तिसे रहित होनेपर भी इस प्रबन्धकी (शान्तिनाथपुराणकी ) रचना की || ६ || उत्तम अलंकार और नानाछन्दोंकी रचनासे युक्त श्रीवर्धमानचरितकी रचना कर असगने साधुजनोंके उत्कटमोहको शान्ति कें लिये श्रीशान्तिनाथ भगवान्का यह पुराण रचा है ॥७॥
'वर्धमानचरित' और 'शान्तिनाथपुराण' की उपर्युक्त प्रशस्तियोंसे इतना स्पष्ट होता है कि असगके पिता