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रणसिंह का चरित्र
श्री उपदेश माला
जो नहीं होने वाला है, उसे कर देता है और जो होनेवाला है उसे जर्जर अर्थात नहीं होने देता है। यह कार्य विधि - भाग्य के आधिन है। अर्थात् पुरुष ने सोचा भी न हो उसे भाग्य कर देता है।
अतः इस प्रकार अधिक सोच करने का क्या काम है ऐसा उत्तर बटुक ने दिया।
बहुत दिनों के बाद कुमार सोमा नगरी पहुँचा। पुरुषोत्तम राजा महोत्सव पूर्वक सामने आया और महोत्सव पूर्वक उसका महाडंबर से नगर प्रवेश कराया। शुभ लग्न में उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ। राजा ने राज्य, अश्व आदि भेंट कीएँ । एकदिन रत्नवती ने कुमार से पूछा -- प्राणनाथ ! वह कमलवती कैसी थी? जिसे पाकर आप मुझसे विवाह कीएँ बिना ही वापिस लौट गएँ। कुमार ने कहा-प्रिये! तीनों लोक में ऐसी कोई भी स्त्री नहीं है जो उसकी उपमा को प्राप्त कर सके। उसकी सुंदरता का क्या वर्णन किया जा सकता है? उसके मरने से जो मैंने तुमसे शादी की है, वह दुर्भिक्ष काल में अच्छे धान्य नहीं मिलने से खराब धान्य से जीवन यापन करने सदृश है। यह सुनकर रत्नवती क्रोधित हुई और कहा - - गंधमूषिका को मैंने ही वहाँ भेजी थी। उस दुष्टा को मैंने ही शिक्षा दिलायी थी। आप दास के समान उसके गुणों का बार-बार वर्णन क्यों कर रहे है? कमलवती को निरपराधी जानकर क्रोधातुर मन वाला होकर रक्त नयन वाले उसने रत्नवती को हाथ से पकडकर चपत मारकर निर्भत्स्ना कर असत् अयोग्य कर्म करने वाली तुझे धिक्कार है, जिससे तुने ऐसी आज्ञा देकर कुकर्म करवाया। तुने अपनी आत्मा को दुःख समुद्र में फेंका तेरे जैसी स्त्री से तो कुत्ती उत्तम जो भसती हुई को अन्न प्रदान करने से वश हो जाती है। वह न बोलती है परंतु तेरे जैसी मानिनी बहुमानित करने पर भी अपनी नहीं होती है। (उसे महल में से निकाल दी ) फिर वह विचारने लगा हा ! हा! मेरी दयिता कमलवती मिथ्या कलंक रूपी चिंता में पड़ी हुई मरण को प्राप्त हुई होगी। अतः मुझे इस जीवन से कोई अर्थ नहीं। इस प्रकार सोचकर अपने सेवको को आदेश दिया कि मेरे आवास के पास महती चित्ता बनाओ जिससें मैं कमलवती के विरह रूपी दुःख से मर जाऊँ। इस प्रकार कहकर बलात्कार से चित्ता करवायी। सभी के द्वारा मना करने पर भी मरने के लिए चला।
इस हकीकत को सुनकर राजा ने कुड़कपटपेटी मिथ्या कलंक देने वाली अकार्य-कारिणी नरकगति गामिनी गंधमूषिका की अतीव कदर्थना कर मान भंग कर, अपमान को पायी हुई को गधे पर बिठाकर अनेक प्रकार से विडंबित कर नगर से निकाल दी। स्त्री होने से मारी नहीं।
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राजा प्रधान, सार्थवाह आदि ने कुमार को रोकने के लिए बहुत प्रयास किया, किंतु वह चिता - प्रवेश करने के लिए उद्यत बना। राजादि ने सोचा हा..!
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