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श्री उपदेश माला
रणसिंह का चरित्र जैसे चंद्र की कांति के दर्शन से चांद्रोपल से अमृत का श्राव होता है दूसरे से नहीं, वैसे संसार में भी जो जिसका वल्लभ होता है वह उसे देखकर भी तृप्त नहीं होता। कुमार ने कहा मुझे आगे जाने का है परंतु तेरे प्रेम रूपी श्रृंखला से बंधा हुआ मेरा मन एक कदम भी आगे जाने के लिए उत्साहित नहीं हो रहा है अतः कृपा कर मेरे साथ आओ। पुनः मैं तुम्हे अवश्य यहां ले आऊंगा। यह सुनकर उस बटुक ने कहा- 'मैं प्रतिदिन चक्रधर देव की पूजा करता हूँ। अतः मेरा आना कैसे होगा? और मुझ जैसे निर्दभव्रतधारी को वहां आने का क्या प्रयोजन है? कुमार ने कहा यद्यपि कार्य तो नहीं है फिर भी मुझ पर कृपा करके आओ। कुमार के उपरोध से उसने स्वीकारा। मार्ग में जाते कुमार की बटुक के साथ अव हुई। क्षणभर भी उसका संग कुमार नहीं छोड़ता। उसी के साथ रहना, चलना, खाना शरीर की छाया के समान क्षणभर भी दूर नहीं होते दुध - पानी सम उनकी मैत्री हो गयी।
कहा है
क्षीरेणात्मग़तोदकाय हि गुणा दत्ताः पुरा तेऽखिलाः । क्षीरे तापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानौ हुतः ।। गन्तुं पावकमुन्मनस्तद्भवद् दृष्ट्वा तु मित्रापदं । युक्तं तेन जलेन शाम्यति पुनर्मैत्री सतामीदृशी ॥ दूध ने अपने में मिले हुए जल को अपने पूर्ण गुण उसे दे दिये। फिर दूध को अग्नि का ताप लगते हुए देखकर उस जल ने प्रथम अपनी आत्मा को अग्नि के हवाले कर दिया। जल को अग्नि से जलते हुए देखकर दूध ने मित्र की विपत्ति वियोग से वह भी अग्नि में जल ने को तैयार हुआ तब जलने आकर उसे शांत किया। अतः मैत्री तो ऐसी ही होती है।
एक बार कुमार ने बटुक से कहा हे मित्र मेरा मन मेरे पास नहीं है। बटुक ने कहा कहां गया? तब कुमार ने कहा 'मेरी वल्लभा कमलवती के पास। उसने कहा कमलवती कहां गयी? कुमार बोला- मेरे जैसे मंदभाग्य वाले के घर में ऐसा स्त्री रत्न कैसे रहेगा? मैंने ही भाग्य से विमुख चित्त वाले ने उसे निकाल दी। वह कहाँ गयी होगी? बटुक ने पूछा- वह कैसी थी ? जिसके लिए तुम इतना खेद करते हो। कुमार ने अश्रु प्रवाह पूर्वक कहा - है मित्र ! उसके गुण एक जिह्वा से कहना कैसे शक्य है ? सभी गुणों की खान वह मेरी स्त्री थी। अब तो उसके बिना सारा संसार शून्य है। परंतु तेरे दर्शन से मुझे आल्हाद उत्पन्न होता है। तब बटुक ने कहा- 'भो! सुंदर ! इतना पश्चात्ताप करना योग्य नहीं है क्योंकि भाग्य से निर्मित उसे कौन मिटा सकता है। कहा है
अघटितघटितानि घटयति सुघटितघटितानि जर्जरी कुरुते । विधिरेव तानि घटयति यानि पुमान्नैव
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