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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
( यहां प्रणिधानत्रिक से जावंति, जावंत, एवं जयवीयराय ये तीन सूत्र
विवक्षित हैं।)
चैत्यवंदन महाभाष्य में चैत्यवंदना के नौ भेद बताकर अब आगे कहते हैं ।
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एसा नवप्पयारा, आइन्ना वंदणा जिणमयम्मि | कालोचियकारीणं, अणग्गहाणं सुहा सव्वा ॥ १६०॥
- जिनमत में इन नौ प्रकार के चैत्यवंदन का आचरण किया गया है । कदाग्रह से रहित एवं कालोचित करनेवालों को सभी प्रकार का चैत्यवंदन शुभ है । (१६०)
सातिविहावि हु, कायव्वा सत्तिओ उभयकालं । सड्ढेहिं उ सविसेसं, जम्हा तेसिं इमं सुत्तं ॥ १६१॥ -शक्ति हो तो उभयकाल (सुबह - शाम) तीन प्रकारका उत्कृष्ट चैत्यवंदन करना चाहिए। इसमें भी श्रावकों को तो विशेष रुप से करना चाहिए। क्योंकि, श्रावको के लिए यह (नीचे की गाथा में कहा गया है वह) सूत्र है । (१६१)
(उपरोक्त श्लोक में जो तीन प्रकार का उत्कृष्ट चैत्यवंदना कहा गया है, उन तीन प्रकार में से कोई भी एक प्रकार का मानें ।)
वंद उभओ कालं, पि चेइयाइं थय - थुईपरमो । जिणवरपडिमागर-धूव- पुष्क- गंधच्चणुज्जुत्तो ॥ १६२॥
- स्तवन स्तुतिमें तत्पर तथा चंदन, धूप, पुष्प एवं सुगंधित पदार्थो से जिनवर की प्रतिमाओं की पूजा करने में उद्यमशील श्रावक उभयकाल प्रतिमाओं को वंदन करता है। (१६२)
सेसा पुण छब्या, कायव्वा देसकालमासज्ज । समणेहिं सावएहिं, चेइयपरिवाडिमाईसु ॥ १६३॥
-शेष छह प्रकार के चैत्यवंदन साधुओं को तथा श्रावकों को देशकाल के अनुसार चैत्यपरिपाटी आदि में करने चाहिए।