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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
पू.महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजाके नाम से लेखक ने जो दुष्प्रचार किया है, वह शास्त्र विरोधी, प्रतिमाशतक के ग्रंथकार की मान्यता से विरुद्ध है और उपेक्षणीय है। भव्यात्माओं से इसमें नहीं फसने का अनुरोध ।
प्रश्न : क्या प्रतिक्रमणमें चतुर्थस्तुति का निषेध करना, शास्त्रवचन आदिका अपलाप है ?
उत्तर : हां, शास्त्र तथा शास्त्रमान्य सुविहित परम्परा का अपलाप है । क्योंकि, अनेक शास्त्रों में चतुर्थ स्तुति को विहित एवं उपयोगी कहा गया है। सुविहित परम्परा में हुए हजारों पूर्वाचार्योंने चतुर्थ स्तुति को देववंदन व प्रतिक्रमण में मान्य किया है।
यहां हम सुविहित आचार्य भगवंतो द्वारा रचित ग्रंथो के नाम दे रहे हैं । इनमें चतुर्थ स्तुति को मान्य किया गया है और त्रिस्तुतिक मत मानने से निम्नलिखित पूर्वाचार्यों व उनके द्वारा रचित ग्रंथ तथा सुविहित सामाचारी का विरोध होता है ।
१. प.पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजा व उनके द्वारा रचित ललित विस्तरा ग्रंथ, पंचवस्तुक ग्रंथ का विरोध होता है । क्योंकि, श्री ललितविस्तरा में चतुर्थ स्तुति को विहित एवं उपयोगी कहा गया है तथा पंचवस्तुक ग्रंथ में क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग करने को कहा गया है।
२. प. पू. आ. भ. श्री नेमिसूरिजी महाराजा व उनके द्वारा रचित प्रवचन सारोद्धार ग्रंथ का विरोध होता है । क्योंकि, इस ग्रंथमें चतुर्थ स्तुति को मान्य किया गया है तथा प्रतिक्रमण की आद्यंतकी चैत्यवंदना चार थोय से करने को कहा गया है । प्रतिक्रमण में यथास्थान श्रुतदेवता - क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करने को कहा गया है।
३. प्रवचन सारोद्धार की टीका के कर्ता पू. आ. भ. श्री सिद्धसेनसूरिजी महाराजा का विरोध होता है ।