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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
कालाच्चाचरणायाः पूर्वमेव संभवात् श्रुतदेवतादिकायोत्सर्गः पूर्वधरकालेऽपि संभवति स्मेति ॥”
भावार्थ : श्री वीर परमात्मा के निर्वाण से हजार वर्ष व्यतीत होने के बावजूद पूर्वश्रुत का व्यवच्छेद हुआ। इसके बाद पचपन (५५) वर्ष बीतने के बाद श्री हरिभद्रसूरिजी स्वर्ग गए। श्री हरिभद्रसूरिजी के ग्रंथकरण काल से पहले भी यह आचरणा चलती थी । इस कारण श्रुतदेवतादिका कायोत्सर्ग पूर्वधरों के काल में भी संभव था ।
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उपरोक्त पाठ से पाठक विचार कर सकेंगे कि, तथाकथित लेखक श्री की बात सही है या पू. आ. भ. श्री कुलमंडनसूरिजी की बात सही है ।
(नोट :- पाठकों की याद रखने की मर्यादा एवं परस्पर अनुसंधान के बिना बोध नहीं होता है। इसलिए एक पाठ दो-तीन बार दिया है ।)
पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरिजी भी पंचवस्तु ग्रंथमें गाथा- ४९१ में कहते हैं कि प्रतिक्रमण में क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग आचरणा से
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चलता है। यहां कई बातें उल्लेखनीय हैं।
(१) पू.आ.भ. श्री हरिभद्रसूरिजी पंचवस्तु ग्रंथ में गाथा ४४५ से ४९२ तक प्रतिक्रमण की विधि बताते हैं और उनमें कहते हैं कि, आचरणा से श्रुतदेवताक्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग किया जाता है।
(२) दूसरी बात यह है कि, पू. आ. भ. श्री के समय से भी पूर्व प्रतिक्रमणमें क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग किया जाता हो तब ही पू. आ. भ. श्री कह सकते हैं कि, आचरणा से श्रुतदेवतादि का कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण में किया जाता है और यदि उनके समय से क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग शुरु हुआ होता तो, वे ऐसा नहीं कह सकते थे
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