Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 166
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी उपरोक्त राई प्रतिक्रमण की विधि में स्पष्ट रुप से चार थोय की चैत्यवंदना करने को कहा गया है । प्रश्न : श्रुतदेवता- क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करने की बात किन ग्रंथो में है ? १६५ उत्तर : आवश्यक सूत्रकी नियुक्ति - हारिभद्रीय टीका में क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करने का विधान है। यह पाठ निम्नानुसार है। चाउम्मासि य वरिसे, उस्सग्गो खित्तदेवयाए य । पक्खिय सिज्झ सुराए, करेंति चउमासिए वेगे ॥ १ ॥ अस्य व्याख्या ॥ चाउ . ॥ क्षेत्रदेवतोत्सर्गं कुर्वंति । पाक्षिके शय्यासुर्याः । केचिच्चातुर्मासिके शय्यादेवताया अप्युत्सर्गं कुर्वंति । भावार्थ : कुछ आचार्य चातुर्मासी तथा सांवत्सरिक के दिन क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करते हैं और पाक्षिक में भवनदेवता का कायोत्सर्ग करते हैं व कुछ चातुर्मासिक के दिन भवनदेवता का कायोत्सर्ग करते हैं। उपरोक्त पाठ में भवनदेवता एवं क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करने को कहा गया है । त्रिस्तुतिक मत के लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजी 'अंधकार से प्रकाश की ओर' पुस्तकमें पृष्ठ - २ - ३ पर प्रतिक्रमण में किए जानेवालें श्रुतदेवता एवं क्षेत्र देवता के कायोत्सर्ग के लिए काफी असंगत चर्चाएं करके अतंमें लिखते हैं कि, “इस प्रकार सबसे पहले श्रुतदेवता और क्षेत्रदेवता काउसग्ग का प्रवेश प्रतिक्रमण में श्री हरिभद्रसूरिजी के समय में हुआ ।” यह बात कितनी असत्य है, यह पू. आ. भ. श्री कुलमंडनसूरिजी द्वारा विरचित 'विचारामृत संग्रह' ग्रंथ के पाठ को देखने से ख्याल आएगा। 'श्रीवीरनिर्वाणात् वर्षसहस्त्रे पूर्वश्रुतं व्यवच्छिन्नं । श्रीहरिभद्रसूरयस्तदनु पंचपंचाशता वर्षै: दिवं प्राप्ता तद्ग्रंथकरण 66

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