Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 189
________________ १८८ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी चेवगमणाइ अणेग अण्णवावार परिणामासत्तचित्तयाए केइपाणीतमेव भावंतरमच्छद्दिअ अट्टदुहट्टइज्जवसिए किंचिकालंखणं विरत्तेताहे । तस्सफलेणं विसंवएज्जा जयाउणं कहिंचीअण्णाण मोहमाया दोसेणं एगिदि आदीणं संघट्ट परिआवणं वाकयं हवेज्जातयाय पच्छा हाहाहा दुट्टकयमम्मोहित्ति घणरागदोसमोहमिच्छत्तणाणंधेहिं अदिट्ठपरलोग पच्चवाएहिं कुरकम्मनिग्घिणेहिं परमसंवेगमावणे सुपरिफूडं आलोइत्ताणं निंदित्ताणं गरहित्ताणं पायच्छित्तमणुचरित्ताणं निस्सल्लेअणा -उलचित्ते असुभकम्मक्खयट्ठा किंचि आयहिअ चिइवंदणाइ अणुटेज्जा तयातयटेचेव उवउत्तेसे हवेज्जाजयातस्सणं परमेगग्गचित्तसमाहि हवेज्जा तयाचेव सव्वजगजीव-पाणभूअसत्ताणं अहिट्ठफलसंपत्ती हवेज्जा ता गोयमा अपडिकंताए इरियावहिआए नकप्पईचेवकाउं किंचिवि चिइवंदणसज्झायज्झाणाई अफलासायमभि -कंखुगणएएणं अटेणं गोयमा एवं वुच्चइ जहाणं गोयमा ससुतत्थोभय पंचमंगलं थिरपरिचियं काउणं तओ इरियावहिअंअज्झाए से भयवं कयराए विहिए तमिरियावहिअमहीए गोयमा जहाणं पंचमंगलमहासु- अक्खंधंति । इति महानिशीथ तृतीयाध्ययने॥ यहां श्री महानिशीथ सूत्रके तीसरे अध्ययन में लिखा गया है कि, जब किसी जीवने अर्थात् दो इन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अथवा पंचेन्द्रिय प्राणीने भूत अर्थात् वनस्पतिकाय या सत्त्व अर्थात् पृथ्वी आदि चार स्थावर जीवों की संघटना कर उन्हें कष्ट पहुंचाया हो, उसका मनमें पश्चात्ताप उत्पन्न हुआ हो कि, हां! हां ! हां ! मैंने बहुत ही दुष्ट काम किया है, अतिशय राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अज्ञान से अंध होकर परलोक के कष्टों का विचार किए बिना निर्दयता से क्रूर कर्म किए हैं। अब कैसे इन पापों से मुक्त होऊंगा, इस प्रकार परमवैराग्य के रंगमें रंगते हुए पाप की आलोचना, निंदा, गर्हा, प्रायश्चित, शल्यरहित होकर, चित्त को समाधि में स्थापित करके अशुभकर्मों का क्षय करने के लिए आत्मा का हित

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