Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 191
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी यदि कोई श्री निशीथसूत्रके वचन को सामान्य कहे और चूर्णि के वचन को विशेष कहे तो यह बिल्कुल उचित नहीं । क्योंकि, महानिशीथ सूत्र पू.गणधर भगवंत द्वारा विरचित है। १९० १४४४ ग्रंथ के रचयिता, सुविहित गच्छ धोरी पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरिजी म. द्वारा विरचित श्रीदशवैकालिक सूत्र की बृहद्वृत्तिमें लिखते हैं कि........ इरियावही प्रतिक्रमण के बिना कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए तथा इरियावही प्रतिक्रमण के बिना क्रिया करेंगे तो वह अशुद्ध होगी । यह पाठ इस प्रकार है । “इर्यापथप्रतिक्रमणमकृत्वा नान्यत्किमपि कुर्यात्तदशुद्धतापत्तेः ॥” इति दशवैकालिकवृत्तौ हारिभद्र्यां ॥२॥ श्री भगवती सूत्रके १२ वें शतक के प्रथम उद्देशा में पुक्खली श्रावक के लिए इरियावही प्रतिक्रमण करके श्रमणोपासक शंख को वंदन, नमस्कार करने के लिए कहा गया है। यह सूत्रपाठ इस प्रकार है। "ततेणं पोक्खली समणोवासए जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता गमणागमणे पडिक्कमति र त्ता संखं समणोवासगं वंदति णमंसती" इस सूत्रमें कहा गया है कि, जो श्रमणोपासक संख पोषध में था उससे बात करनी थी। वह भी पुक्खली श्रावकने 'इरियावही' प्रतिक्रमण करके की, ऐसा भगवती सूत्रमें कहा गया है। तो फिर सामायिक तो मुनिराजत्व का पकवान है। इसकी क्रिया तो विरति स्वरुप प्रासादकी पीठिका समान 'इरियावही ' प्रतिक्रमण के बिना सामायिक शुद्ध हो ही नहीं सकता। भगवती सूत्र के इस पद की टीका श्री अभयदेवसूरिजीने लिखी है, जो इस प्रकार है "ततेणं पोक्खली समणोवासए जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे

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