Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 196
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी १९५ दूसरा कारण यह लगता है कि, तत्कालीन आगमिक मत तपागच्छ की एक-दो मान्यता से अलग था, जबकि वर्तमान त्रिस्तुतिक मतवालोनें अपने मत की पुष्टि करने के लिए जो सुधार किए हैं, वे सुधार तपागच्छकी कई सुविहित मान्यताओं-आचरणाओं से अनेक प्रकार से अलग पडते हैं । इसलिए यदि आगमिक मत के रुपमें अपने मत को दर्शाएं तो अपने मत की पुष्टि के लिए स्वीकारी अन्य झूठी मान्यताओं के सामने कई प्रश्न खडे हो सकते हैं और वे मान्यताएं स्वयमेव शास्त्रविरोधी सिद्ध हो जाएंगी। इसी प्रकारके भय से अपने मत को आगमिक मतसे अलग दर्शाते हैं। इसलिए त्रिस्तुतिक मतने शास्त्रविरोधी और जैनशासन के इतिहास से विरुद्ध अपनी पहचान जगतमें प्रस्थापित की है। यह पाठक स्वयं समझ सकते हैं। प्रश्न : आगमिक मतकी उत्पत्ति कब हुई और इस मतकी उत्पत्तिका इतिहास क्या है ? तथा आगमिक मत ही त्रिस्तुतिक मत कहलाता था, इसके लिए आपके पास प्रमाण क्या हैं ? उत्तर : इन सभी प्रश्नो के उत्तर प्रवचन परीक्षा ग्रंथ में देखने को मिलते हैं । प्रवचन परीक्षा ग्रंथके सातवें विश्राम में आगमिक मत का निरुपण करते हुए कहा गया हैं कि, अथ क्रमप्राप्तं त्रिस्तुतिकापरनामागमिकमतमाहअह आगमिअं कुमयं पायं थणिउव्व सव्वलोअमयं । पंचासुत्तरबारससएहिं वरिसेहिं विक्कमओ ॥१॥ सीलगण देवभद्दा नामेणं निग्गया य पुण्णिमओ । पल्लवपक्खे पत्ता तत्तोऽविअ निग्गया समए ॥२॥ सत्तुंजयस्य पासे मिलिआ सत्तट्ठ वुड्डगणमुणिणो । गणनिग्गया य तेसिं सव्वेहि वि मिलिअ दुज्झायं ॥३॥ भावार्थ : अब क्रम प्राप्त त्रिस्तुतिक जिसका दूसरा नाम आगमिक मत हैं, उसे कहते हैं

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