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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
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जघन्य तथा मध्यम चैत्यवंदना इर्यावही किए बिना भी होती है।
इसलिए हीरप्रश्न के नाम से मुनिश्री ने जो बात की है, वह असत्य है । हीरप्रश्न में चैत्यवंदना के बाद इर्यावही करना कहीं भी नहीं लिखा है । फिर भी मुनिश्री ने अन्य अर्थमें बताई गई बात को अपने मत की पुष्टि के लिए जोड दिया है । उन्मार्ग पर जानेवालों की यही स्थिति होती है। जो श्रावक घरमें सामायिक लेकर उपाश्रयमें साधु के पास आता है, वह पहले साधु भगवंत से सामायिक दंडक का उच्चारण कराता है और फिर मार्ग में हुई विराधना को टालने के लिए इरियावही करके स्वाध्यायमें बैठता हैं। यह विधि घर में सामायिक करनेवाले के लिए है और पू. आ. भ. श्री देवगुप्तसूरिजी कृत नवपद प्रकरण आदिमें इस बारे में जो बात की गई है, वह इसी परिप्रेक्ष्यमें की गई है।
यहां भी याद रखना चाहिए कि, घरमें सामायिक लेनेवाला श्रावक भी प्रथम इरियावही प्रतिक्रमण करे और बादमें ही सामायिक दंडक (स्वयं) उच्चारण करे । इस प्रकार त्रिस्तुतिक मतकी मान्यता असत्य है ।
प्रश्न : क्या आगमिक मत को ही त्रिस्तुतिक मत कहा जाता है ? उत्तर : हां, प्रवचन परीक्षा ग्रंथमें आगमिक मत को ही त्रिस्तुतिक मत रुप में बताया गया है। एक ही मत के दो अलग-अलग नाम हैं। ये दोनो मत अलग अलग नहीं है।
प्रश्न : वर्तमानमें त्रिस्तुतिक मतवाले स्वयं को आगमिक मतके रुपमें क्यों नहीं दर्शाते हैं ?
उत्तर : इस बारेमें त्रिस्तुतिकवालों का अभ्यंतर आशय ऐसा लगता हैं कि, प्रवचन परीक्षा ग्रंथमें आगमिक मत शासनबाह्य - शास्त्रविरोधी मत के रुपमें दर्शाया गया है। इसलिए अपने मतको जगतमें शास्त्रविरोधी मत घोषित होने से बचाने की अंतरंग भावना से वे अपने मत को आगमिक मतके रुपमें दर्शाने से बचते हैं।