Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 190
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी १८९ करनेवाली करनी करे । अर्थात् चैत्यवंदना आदि करके समग्र सामायिक प्रतिक्रमण, पोषह प्रमुख करनी करे, उस समय उस करनी के उपयोग के विषयमें सावधानी बरते अर्थात् करनी के उपयोगपूर्वक सावधानी से साधक क्रिया करता है। इस प्रकार करने से प्राणी के मनकी एकाग्रता होती है, चित्त की समाधि होती है और इससे जगत के जीवों के (जीव अर्थात् पूर्वमें बताए गए प्राणी, भूत और सत्त्व आदि सभी जीवों के) अभिष्ट फल की प्राप्ति होती है। (इसलिए कहा गया है कि, समस्त जगत के जीवों से समभाव से बरतें, इसे ही सामायिक कहते हैं।) ( यदुक्तं श्रीआवश्यकनियुक्तौ ॥ समो जो सव्वभूयेसु तसेसु थावरेसु य तस्स सामाइयं होइ इइ केवली भासियं ॥१॥) इस कारण गौतम ! इरियावहिया प्रतिक्रमण के बिना किसी भी धर्मक्रिया करनी संगत नहीं होती है। देववंदन आठ स्तुति से करें तथा प्रथम पोरसी से सूत्रपाठ करें इसे ही सज्झाय कहा जाता है तथा दूसरी पोरसी में अर्थचिंतन करें, यह ध्यान कहलाता है। इसलिए धर्मक्रिया के फल के स्वाद लेनेकी इच्छावाले जीव को (साधकको) इरियावहिया प्रतिक्रमण करके धर्मक्रिया करनी चाहिए । इसके बिना कोई फल नहीं मिलता। इसलिए ऐसा कहा गया है कि, इरियावही प्रतिक्रमण के बिना जो सामायिक किया जाता है वह बांझ सामायिक होता है। यह सामायिकादि करनी सूत्रानुसार इरियावही प्रतिक्रमण करके ही करनी चाहिए तथा महानिशीथ सूत्र छह छेद सूत्र के मध्य में है।

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