Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 185
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी और द्रव्य निक्षेप भी भाववृद्धि का कारण हैं । यह स्वयंसिद्ध बात है । व्यवहार में भी इसकी प्रतीति होती ही है। जैसे माता की उपस्थिति भक्ति पैदा कराती थी, वैसे ही माताकी प्रतिकृति भी भक्ति उत्पन्न करती ही है, यह भी स्वयंसिद्ध ही है । इसके बावजूद स्थानकवासी जिनप्रतिमा का विरोध करते थे, इसीलिए पू. महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजाने प्रतिमाशतक में इसकी सिद्धि की है। विरोध था और उसकी सिद्धि की है, इसलिए जिनप्रतिमा अस्वीकृत नहीं हो जाती। ऐसे तो अनेक दृष्टांत हैं। सुज्ञजन स्वयं विचार कर सकते हैं। 'तीर्थकोटराजी या अनुचित लेख का समुचित उत्तरदान पत्र' इस पुस्तकमें लिखा है कि, १८४ सामायिक पौषध रहित श्रावक देववंदन करे उस में चोथी थुई कहने का दोष नहीं. ' "" यह बात भी उनकी परस्पर विरोधी है। क्योंकि, एक तरफ वे कहते हैं कि, भावपूजामें चतुर्थस्तुति कहने से भावपूजा खंडित हो जाती है और दूसरी ओर सामायिक पौषध के बिना मंदिरादि में देववंदन स्वरुप स्तुतिपूजामें चतुर्थस्तुति का उपदेश देते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है। क्या स्तुतिपूजा भावपूजा नहीं ? यदि भावपूजा है तो चतुर्थ स्तुति से उसका खंडन हो जाएगा कि नहीं ? स्तुति भी सामायिक प्रतिक्रमणकी तरह भावपूजा कही गई है। चैत्यवंदन महाभाष्यकी वृत्ति इस बातको निम्नानुसार बताती है.... "अथ तृतीया भावपूजा, सा च स्तुतिभिर्लोकोत्तरसद्भूततीर्थंकरगुणगणवर्णन पराभिर्वाक्पद्धतिभिर्भवति, आहच, तइया उ भावपूजा ठाउं चियवंदणोचिए देसे । जसत्ति चित्तथुइथुत्त माइणे देववंदणयं ति ॥"

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