Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

View full book text
Previous | Next

Page 180
________________ १७९ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी अन्नत्थूससियाई-पुव्वुत्तागारकरणेणं ॥७७८॥ __ भावार्थ : संघ सम्यग्दृष्टि है। संघ की समाधि अर्थात् मानसिक दुःखोका अभाव । वैयावृत्त्य, शांति एवं सम्यग्दृष्टि समाधि करने के स्वभाववाले जो साधर्मिक उत्तम देव हैं, उनके सन्मान के लिए अब कायोत्सर्ग करता हूं। यह कायोत्सर्ग उच्छवास के अलावा पूर्वोक्त आगारों को रखकर करता हूं। (१७७ ७७८) एत्थ उभणेज्ज कोई, अविरइगंधाण ताणमुस्सग्गो। न हुसंगच्छइ अम्हं, सावय-समणेहिकीरंतो ॥७७९॥ गुणहीणवंदणं खलु, न हुजुत्तं सव्वदेसविरयाणं। भणइ गुरु सच्चमिणं, एत्तो च्चिय एत्थ नहि भणियं ॥७८०॥ वंदण-पूयण-सक्का-रणाइहेउं करेमि उस्सग्गं । वच्छलं पुण जुत्तं, जिणमयजुत्ते, तणुगुणे वि॥७८१॥ भावार्थ : पूर्वपक्ष : अविरति से अंध देवों को उद्देशित करके श्रावक तथा श्रमण, हम से किया जानेवाला कायोत्सर्ग संगत नहीं-घटता नहीं। सर्वविरतिधर तथा देशविरतिधर गुणहीन को (विरति से रहित को) वंदन करें यह योग्य नहीं। उत्तरपक्ष : (गुरु) आपकी बात सच्ची है। इसीलिए यहां वंदन-पूजनसत्कार आदि के लिए कायोत्सर्ग करता हूं, ऐसा नहीं कहा है। बल्कि अल्प गुणवाले भी जिनमत से युक्त (-सम्यग्दृष्टि) जीवमें वात्सल्य करना योग्य ही है। ते हुपमत्ता पायं, काउस्सग्गेण बोहिया धणियं। पडिउज्जमंति फूडपा-डिहेरकरणे ददुच्छाहा ॥७८२॥ सुव्वइ सिरिकंतए मणोरमाए तहा सुभद्दाए। अभयाईणं पि कयं, सन्नेझं सासणसुरेहिं ॥७८३॥ ____ भावार्थ : वे देव प्रायः प्रमादवाले होते हैं। कायोत्सर्ग से अत्यंत जागृत किए गए देव उत्साहवाले होकर प्रकट रुप से सान्निध्य करने में उद्यम करते हैं। (७८२)

Loading...

Page Navigation
1 ... 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202