Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 172
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी १७१ अयमभिप्रायः । यदि मोक्षार्थमेतेषां पूजादि क्रियते ततो दुष्टं विघ्नादिवारणार्थं त्वदुष्टं तदति किंचेत्यभ्युच्चय इति गाथार्थः । अभ्युच्चयमेवाह । मिच्छत्तगुणजुयाणं, निवाइयाणं करेमि पूयाई ॥ इह लोय कए सम्मत्त गुण जुयाणं नउण मूढा ॥१००५ ॥ व्याख्या ॥ मिथ्यात्वगुणयुतानां प्रथमगुणस्थानवर्तिनां नृपादीनां नरेश्वरादीनां कुर्वंति पूजादि अभ्यर्चननमस्कारादि इह लोककृते मनुष्यजन्मोपकारार्थं सम्यक्त्वसंयुतानां दर्शनसहितानां ब्रह्मशांत्यादीनामिति शेषः । न पुनर्नैव मूढा अज्ञानिनः इति गाथार्थः ॥ भावार्थ : 'तहबंभसंति' इत्यादि गाथा की व्याख्या । ' तथा ' शब्द वादांतर को कहने के लिए है। ब्रह्मशांत्यादि का 'मकार' पूर्ववत् जानें। आदि शब्द से अंबिकादि ग्रहण करना । कुछ लोग उनकी पूजादि का निषेध करते हैं आदि शब्द से शेष उनका औचित्य ग्रहण करें। उनकी पूजा का निषेध करना योग्य नहीं । क्योंकि, सिद्धांतादि महाशास्त्रों के वृत्तिकार श्रीहरिभद्रसूरिजीको ब्रह्मशांति आदि की पूजा उचितकृत्यके रुपमें स्वीकृत है। उन्होंने श्री पंचाशकजी में इसका कथन किया है। यह गाथार्थ हैं। यह अब कहा जाता है । 'साहम्मिया' इत्यादि गाथा की व्याख्या । यह जो शासनदेव हैं । वे सम्यग्दृष्टि हैं । महाऋषिमान् हैं । साधर्मिक हैं, इसलिए उनकी पूजा कायोत्सर्गादि उचितकृत्य करना श्रावकों के लिए योग्य हैं। मात्र श्रावकों को ही उनकी पूजादि करना है, ऐसा न समझें, बल्कि संयमी साधु भी उनका कायोत्सर्ग करता है। यह अब बताते हुए कहते हैं कि, 'विग्घविघायणहेउ।' इत्यादि गाथा १००१ की व्याख्या । विघ्नों का नाश करने के लिए साधु भी क्षेत्रदेवता आदि का कायोत्सर्ग करते हैं । आदि शब्द से भवनदेवतादि को ग्रहण करें । इससे मात्र श्रावकों को ही उनका कायोत्सर्ग करना है ऐसा न समझें। बल्कि साधु भी करते है

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