Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 169
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी पंचवस्तुक ग्रंथमें प्रतिक्रमण की विधि देखने को मिलती है, इससे श्रुतदेवतादि का कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण के अंतमें होता होगा, ऐसा लगता है। परन्तु कोई ये न कहे कि, वह प्रतिक्रमण के अंत में होता होगा, इसलिए प्रतिक्रमण की विधि में नहीं आता और इसलिए प्रतिक्रमणमें न करें तो भी चले . क्योंकि, पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजी के समय से प्रतिक्रमण में क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग चलता ही है। प्रतिक्रमण की विधि बदलती रही है। १६८ -पूर्व में पंचांगी में प्रतिक्रमण की प्रारम्भ में चैत्यवंदना नहीं थी । इसका आचरणा से प्रारम्भ हुआ, - पूर्व में प्रतिक्रमण में 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' की तीन गाथा बोलने से प्रतिक्रमण की पूर्णाहूति होती थी । आचरणा से उसमें स्तवन, प्रायश्चित के लिए चार लोगस्स का कायोत्सर्ग आदि का प्रारम्भ हुआ । (पूर्वमें हम देवसि प्रतिक्रमण की विधि देख चूके हैं।) - इसी प्रकार पूर्व में (पंचवस्तुक ग्रंथकी रचना से पूर्व ) श्रुतदेवता - क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण के अंत में होगा । पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरिजी के समय से उसका प्रतिक्रमण में ही प्रारम्भ हुआ । जैसे त्रिस्तुतिक मतवाले प्रतिक्रमण की विधि में ते ते समय शुरु हुई चैत्यवंदना आदि की नई आचरणाओं को स्वीकार करते हैं और अमल करते हैं, वैसे ही आचरणा से किया जानेवाला क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग व उनकी थोय क्यों नहीं स्वीकार करते ? मनचाहा वह स्वीकारा और न चाहा तो नहीं स्वीकारा, यह पूर्वाचार्यों की सेवा नहीं है । परन्तु सामाचारी का विरोधीपन हैं और पू.भद्रबाहुस्वामीजीने सूयगडांग सूत्रकी नियुक्ति में कहा है कि, जो पूर्वाचार्यों की सुविहित परम्परा का उच्छेदक है, उसका नाश होता है।। सुज्ञेषु किं बहुना ॥ इस प्रकार श्रुतदेवता- क्षेत्रदेवतादि के कायोत्सर्ग का पू. आ. भ. श्री

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