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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
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मात्रस्याप्युच्छेदापत्तेः।
(iii) श्रुतव्यवहारे च श्रुतव्यवहारमुल्लङ्घ्य प्रवर्तमानो द्रष्टुमप्यकल्प्यः , यो यो यद्यदव्यवहारवान्, स स तं तं व्यवहारं पुरस्कृत्य प्रवर्त्तमानो जिनाज्ञाराधको, नान्यथा।
(iv) बहुसम्मतमन्याचरितं च प्रायस्तदेव भवति यदागमव्यवहारि -युगप्रधानादिमूलकं स्याद्, यथा पर्युषणाचतुर्थी, अन्यथा “जस्स जं परंपरागयं तस्स तं पमाणं" इत्यादिवचनानुपपत्तेः, यतः परम्पराऽपि किं यत्किचित्पुरुषादारभ्याभ्युपगम्यते ?, नहि सातिशयपुरुषमूलकमन्तेरेण परम्परागतमिति भणितुं शक्यते।
(V) प्रवचनमधीते.... प्रमाणत्वादिति व्याख्यानं श्रीभगवतीवृत्तौ, तत्र सर्वापि प्रवृत्तिः प्रमाणतया न भणिता, यतः श्रुतव्यवहारिणा प्रवर्तितं तदेव प्रमाणं स्याद्यदागमानुपातिः,अन्यथा प्रवचनव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्येत।
__ (८) तत्वतरंगिणी नामक ग्रंथमें भी महोपाध्याय श्रीधर्मसागरजी महाराज कहते हैं कि,
(अ) आचार्य परम्परा से आई सामाचारी, अपने दोष के कारण सिद्धांतशास्त्र के तनिक भी दोष को दिखानेवाली न हो, वही सामाचारी प्रमाण है।
(आ) अशठ पुरुष द्वारा आचरित आदि लक्षणों से रहित सामाचारी, प्रशस्त नामवाली हो तो भी, अंगीकार करने योग्य नहीं : इतना ही नहीं, किन्तु विषमिश्रित दूध का जैसे त्याग किया जाता है, वैसे ही आगम विरोधी सामाचारीका मन-वचन-काया से करने-करानेअनुमोदना से भी त्याग करना चाहिए । अर्थात् मन, वचन व काया से आगमविरोधी सामाचारी का स्वयं भी त्याग करें । अन्य से भी आगमविरोधी सामाचारी का आचरण न करावें और जो ऐसी आगमविरोधी सामाचारी का आचरण करते हों, उनकी अनुमोदना भी न करें ।
(अ) तल्लक्खणंतुआयरियपारंपरएण आगया संती।