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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
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वंदित्तासूत्र श्रावककृत नहीं है। पू.श्रुतस्थवीर भगवंत प्रणीत है। सम्यग्दृष्टि देवताओं के लिए 'वे तो विषमपिपासु हैं, कषायरंगसे रंगे हैं' इत्यादि कहना यह उनकी आशातना है।
-शास्त्रपाठों के आधार पर किए गए उपरोक्त खुलासों से त्रिस्तुतिक मतवाले सच्चे हैं या चतुर्थ स्तुति माननेवाले सच्चे हैं ? यह पाठक स्वयं सोचेंसोचकर सत्यमार्ग को ग्रहण करनेवाले बनें।
प्रश्न : आ. यतीन्द्रसूरिजी स्वलिखित श्रीसत्यसमर्थक प्रश्नोत्तरी पुस्तक के पृष्ठ-३९ पर एक प्रश्न के उत्तरमें लिखते हैं कि,
_ 'श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग व उनकी स्तुति करने की प्रथा लघुशांति की तरह प्रतिक्रमण में गतानुगतिक से शुरु हो गई है। देव उपासकों द्वारा स्वयं स्वीकृत मार्ग सिद्ध करने के लिए प्रतिक्रमण की विधिओं में उसकी घुसपैठ की है। शास्त्रोक्त न होने से मानने लायक नहीं और प्रतिक्रमणमें इन काउस्सग्गोंकी कोई आवश्यकता भी नहीं । यदि ऐसा कहें कि पाक्षिक प्रतिक्रमणमें पाक्षिक सूत्रके अंतमें 'सुयदेवया भगवई' गाथा अन्त्य मंगलरुप कहलाती है, यह भी श्रुतदेवता की ही स्तुति है। तो इसे कैसे बोला जाए? इसका समाधान यह है कि, श्रुतदेवता का अर्थ देवी विशेष समझना भूल है। भगवती सूत्र की टीका तथा पंचसंग्रहकी टीकामें श्रुतदेवता शब्द का अर्थ जिनवाणी कहा गया है। जिनवाणी स्वयं कर्म रजसे अलिप्त है और अन्य के ज्ञानावरणीय आदि कर्मनाश करने में समर्थ है। इसलिए.......
सुयदेवया भगवई, नाणावरणीयकम्मसंघायं।
तेसिं खवेउ सययं, जेसिं सुयसायरे भत्ती ॥ इसका शुद्ध अर्थ ऐसा होता है कि, जिन पुरुषोंकी हमेशा श्रुतसागरमें भक्ति है, तन्मयता है। उन पुरुषोंके ज्ञानावरणीय आदि कर्मसमूहों का जिनवाणी नाश
करे।