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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
१५३ परमगुरु (तीर्थंकर) के विषय में स्थिर किया है, संवेग एवं वैराग्य के समूह से उत्पन्न हुए रोमांचो से जिनका शरीर छा गया है। संप्राप्त अतिहर्ष के वश निकले अनुजल से जिनके नयनकमल भर गए हैं, 'भगवान के चरणकमल की वंदना अतिदुर्लभ है,' इस प्रकार का सन्मान करनेवाला तथा अंगोपांग को जिसने अच्छी तरह से संवर लिया है, (ऐसे साधु अथवा श्रावक) योगमुद्रा से भगवान के आगे शक्रस्तव को अस्खलितादि गुणों से युक्त बोले । फिर इरियावही प्रतिक्रमण करके पच्चीस श्वासोश्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करे, 'लोगस्स उज्जोअगरे' इत्यादि सम्पूर्ण कहे । इसके बाद दोनों घुटने जमीन पर रखकर हाथ जोड़कर अच्छे कवियों द्वारा रचे हुए अपूर्व नमस्कार (स्तोत्र पाठपूर्वक शक्रस्तवादि पांच दंडको से जिनवंदन करे । चौथी थोय के अंतमें पुनः शक्रस्तव कहकर दूसरी बार भी इसी क्रम से जिनवंदन करे । इसके बाद चौथी बार शक्रस्तव कहने के बाद पवित्र स्तोत्र बोलकर 'जयवीयराय' इत्यादि प्रणिधान पाठ कहकर पुनः शक्रस्तव कहे, इस प्रकार यह श्रेष्ठ चैत्यवंदना इर्यापथिकी प्रतिक्रमण पूर्वक ही होती है। परन्तु जघन्य तथा मध्यम चैत्यवंदना इर्यावही के बिना भी होती है। • देववंदन लघुभाष्य का पाठ :: "इरि १, नमुक्कार २ नमुत्थुणं ३ ऽरिहंतथुई ४ लोग५ सव्व६ थुई ७ पुक्ख ८।थुइ ९सिद्धा १० वेया ११ थुई १२॥ नमोत्थु जावंति थय थयवी॥६२॥ सव्वोवाहिविसुद्धं एवंजो वंदए सया देवे। देविंदविंदमहिअंपरमपयं पावइ लहुसो॥६३॥"
-इर्यावही, नमस्कार, नमुत्थुणं, अरिहंत चेइयाणं, स्तुति (थोय), लोगस्स, सव्वलोमे, स्तुति, पुक्खरवरदी, स्तुति, सिद्धाणं बुद्धाणं, वैयावच्चगराणं, स्तुति, नमुत्थुणं, जावंति, स्तवन तथा जयवीयराय॥६२॥