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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
इस विधि से सर्वोपाधिविशुद्ध जो नित्य देववंदन करते हैं, वे जल्दी देवेन्द्रपूजित परमपद को प्राप्त करते हैं। • भाष्यवृत्तिः __"ततः सिद्धणि-सिद्धाणमित्यादि भणित्वा 'वे यत्ति' वेयावच्चगराणमित्यादिना कायोत्सर्गः कार्यः ततः 'थुई त्ति' वैयावृत्यकरादिविषयैव चतुर्थी स्तुति र्दीयते॥"
भावार्थ : इसके बाद 'सिद्धाणं बुद्धाणं' कहकर 'वैयावच्चगराणं' इत्यादि से कायोत्सर्ग करें । तत्पश्चात् थोय अर्थात् वैयावच्च करनेवाले देवों की चौथी थोय कहें।
उपरोक्त शास्त्रपाठों में बताई गई चैत्यवंदन-देववंदन की विधिमें चौथी थोय स्पष्ट रुप से कहने को कहा गया है । पूर्वमें बताए अनुसार ललितविस्तरा पंजिका, चैत्यवंदन महाभाष्य में वैयावच्चकारी देव-देवी का कायोत्सर्ग तथा उनकी थोय विहित एवं उपयोगी है, यह सिद्धकर दिया है।
शास्त्ररुपी दीपक प्रकाश फैलाता है, फिर भी इस प्रकाशमें विहितअविहित पदार्थों का जिसे दर्शन ही नहीं करना और मात्र कुतर्क करके प्रकाश के नाम से अंधकार में भटकना ही है, उसके लिए तो कोई उपाय ही नहीं है।
चौथी थोय की विहितता एवं उपयोगिता हमने देखी । त्रिस्तुतिक मतके लेखकश्रीने देववंदन को भावानुष्ठान कहा है। इस भावानुष्ठान में भी चौथी थोय का समर्थन उपरोक्त दर्शाए शास्त्रोंने किया ही है।
प्रश्न : प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में होनेवाली चैत्यवंदना में चार थोय किस आधर पर कही जाती है?
उत्तर : कलिकाल सर्वज्ञ पू.आ.भ.श्री हेमचंद्रसूरिजी महाराजाने योगशास्त्रवृत्ति में पूर्वाचार्य प्रणीत जो गाथाएं प्रस्तुत की हैं, उन्हें ही महोपाध्याय