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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी पणिहाणवज्जं चेइयाइं वंदित्तु ।”
भावार्थ : श्रावक अपने गुरु के साथ अथवा अकेला जावंति चेइयांइ, ये दो गाथा, स्तोत्र, प्रणिधान छोड़कर शेष शक्रस्तव पर्यंत चार थोय से चैत्यवंदना करके....
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विधिप्रपा ग्रंथ के उपरोक्त पाठ से सिद्ध होता है कि, प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में की जानेवाली चैत्यवंदना चार थोयसे ही करनी है।
प्रश्न : यहां तो आपने जावंति चेइआई, जावंत के वि; ये दो गाथा, स्तोत्र ( स्तवन), प्रणिधान इसको छोडकर शक्रस्तव पर्यन्त चैत्यवंदना करने को कहा गया है। चार थोय से ही चैत्यवंदना करने को कहां कहा है ?
उत्तर : पूर्व में प्रवचन सारोद्धार आदि के पाठ दिए हैं। इनमें चैत्यवंदना १२ अधिकार पूर्वक करने को कहा गया है तथा प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में जो चैत्यवंदना करनी है, वह भी १२ अधिकारपूर्वक ही करनी है। क्योंकि, पूर्वाचार्य कृत गाथाओं के आधार पर योगशास्त्र, धर्मसंग्रह आदि ग्रंथ में प्रतिक्रमण की विधि की गाथाओं में प्रतिक्रमणकी प्रारंभिक चैत्यवंदना करने की विधि बताने के लिए 'वंदित्तु चेइयाई' पद दिया है, और इस पद का तात्पर्य बताते हुए (ऊपर दर्शाए अनुसार) विधिप्रपामें भी चार थोय से ही चैत्यवंदना करने अर्थात् १२ अधिकारपूर्वक चैत्यवंदना करने को कहा है। इसके अलावा अभिधान राजेन्द्रकोष में भी प्रतिक्रमण की विधि बताते हुए जो प्रारम्भिक चैत्यवंदना बताई गई है, वह १२ अधिकारपूर्वक अर्थात् चार थोय से ही करने को कहा गया है तथा 'इति हेतोः' कहकर १२ अधिकार भी बताए गए हैं। इसमें वैयावच्चकारी देवता का कायोत्सर्ग व उनकी थोय कहने को भी कहा गया है । ( अभिधान राजेन्द्रकोष का यह पाठ आगे दर्शाया जा चुका है । )
इसलिए प्रतिक्रमण के प्रारम्भमें चार थोय से चैत्यवंदना पूर्वाचार्यकृत गाथाओं से सिद्ध होती है ।