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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
( ३ ) इसी प्रकार धर्मसंग्रह ग्रंथ के अलावा श्राद्धविधि, वृंदारुवृत्ति, अर्थदीपिका, खरतर बृहत्सामाचारी, पूर्वाचार्य कृत सामाचारी, तपागच्छीय श्री सोमसुंदरसूरिकृत सामाचारी, तपागच्छीय श्री देवसुंदरसूरिकृत सामाचारी, योगशास्त्र, पू. कालिकाचार्य सूरि संतानीय श्री भावदेवसूरि विरचित यतिदिन चर्या आदि अनेक शास्त्रों में देवसि प्रतिक्रमण की आदि में तथा राई प्रतिक्रमण के अंतमें चार थोयसे चैत्यवंदना करने को कहा गया है।
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(४) तपागच्छ में वर्तमान में इसी प्रकार देवसि प्रतिक्रमण होता है प्रायश्चित के कायोत्सर्ग के बाद वैराग्यगर्भित सज्झाय बोलने तथा कर्मक्षय के निमित्त चार लोगस्स का कायोत्सर्ग तथा उपर शांति कहने की प्रवृत्ति सुविहित परम्परा से चलती है।
विचित्रता यह है कि, त्रिस्तुतिक मतवाले परम्परा से आए कर्मक्षय निमित्त का कायोत्सर्ग करते हैं और शांति नहीं बोलते हैं। अनुकूल परम्परा का अनुसरण करना और प्रतिकूल परम्परा का अनुसरण नहीं करना, यह कैसा न्याय है ?
दूसरी विचित्रता यह है कि, मूलसूत्रों में प्रतिक्रमण की विधि में प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में चैत्यवंदन करने को नहीं कहा गया है। फिर भी वर्तमानमें सुविहित परम्परा से आयी चैत्यवंदना वे करते हैं, परन्तु सुविहित परम्परा से आई चार थोय की चैत्यवंदना नहीं करते। यह भी बड़ी विचित्रता कहलाएगी न ?
वास्तवमें तो मूलसूत्रों में प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में व अंत में चैत्यवंदना करने और वह किस क्रमसे करना यह ज्ञात ही नहीं यह कहा ही नहीं गया है। ऐसा संघाचारवृत्तिमें पू. आ. भ. श्री धर्मघोषसूरिजी स्पष्ट रुप से कहते हैं । प्रतिक्रमण के आद्यंत की चैत्यवंदना पूर्वाचार्य कृत सामाचारी से ही ज्ञात है, - बताया गया है तथा यह चैत्यवंदना करने का क्रम ललितविस्तरा से ज्ञात है।