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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
१४५ भक्तिमतां कर्मक्षपयत्विति सम्यग् नोपपद्यते श्रुतस्तुतेः प्राग बहुशोऽभिहितत्वाच्चेति तस्मात् प्रस्थितमिदमहत्पाक्षिकी श्रुतदेवतेह गृह्यते इति ॥
__भावार्थ : (अब प्रारम्भित पाक्षिकसूत्र की समाप्ति में श्रुतदेवता से विनती करते हैं ।) श्रुत अर्थात् श्री अरिहंत परमात्मा का प्रवचन-आगम । इस अर्हत् प्रवचन की जो अधिष्ठाता देवी हैं, वे श्रुतदेवी (कहलाती) हैं । (इसलिए) श्रुतदेवता स्वरुप श्रुताधिष्ठातृ देवी-श्रुतदेवी होने की संभावना है। (कल्पभाष्यमें कहा गया है कि, अर्हत् प्रवचन की अधिष्ठाता देवी, श्रुतदेवी होने की संभावना है।) इसलिए कल्पभाष्य में कहा गया है कि,
जो वस्तु लक्षण युक्त होती हैं, वे सभी वस्तुएं देवतासे अधिष्ठित होती हैं और सर्वज्ञभाषित सूत्र सर्व लक्षणों से युक्त है। इसलिए उसके अधिष्ठाता देवता हैं। (और वही श्रुतदेवी हैं।)
हे पूज्य भगवती ! जीवों के ज्ञान की आशातना करने से उत्पन्न ज्ञानावरणीय कर्म के समूह का नाश करें। जिनकी श्रुतसागर के प्रति निरंतर भक्ति सन्मान एवं विनय है, ऐसे जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म के समूह का नाश करें । ऐसा (अर्थ) प्रतीत होता है।
पूर्वपक्ष : श्रुतरुप देवता से विज्ञप्ति (विनती) करना उचित है। क्योंकि, श्रुतभक्ति कर्मक्षय के कारण स्वरुप प्रसिद्ध है। परन्तु व्यंतरादि प्रकारके श्रुत अधिष्ठातृ देवतासे विज्ञप्ति करना युक्त नहीं । क्योंकि, श्रुतदेवी अन्य के कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं।
उत्तरपक्ष : आपकी यह बात उचित नहीं। क्योंकि, श्रुताधिष्ठात्री-श्रुतदेवी सम्बंधी शुभ प्रणिधान भी स्मरण कर्ता के कर्मों का क्षय करनेमें कारण है, ऐसा शास्त्रमें कहा गया है। यह शास्त्रवचन इस प्रकार है।
'श्रुतदेवता का स्मरण कर्म का क्षय करनेवाला कहा गया है। ये श्रुतदेवता