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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
'श्रुतदेवी हमें ज्ञान देनेवाली बनें' यह कथन उत्तराध्ययन सूत्रकी बृहद्वृत्ति में है।
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पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरिकृत आवश्यकवृत्ति में कथन है कि, 'जिनवरेन्द्र श्रीमहावीर परमात्मा श्रुतदेवता एवं गुरुओ को नमस्कार करके आवश्यक सूत्रकी वृत्तिकी रचना करता हूं ।'
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अनुयोगद्धार सूत्र की वृत्तिमें कहा गया है कि,
'जिस श्रुतदेवी के अतुल्य अनुग्रह को प्राप्त करके भव्यजीव अनुयोगके जानकार बनते हैं । उस श्रुतदेवी को में नमस्कार करता हूं ।'
श्री निशिथचूर्णिमें सोलहवें उद्देशा में भाष्यचूर्णि में साधुओं को वनदेवताओं के कायोत्सर्ग करने को कहा गया है। यह पाठ निम्नानुसार है।
“ ताहे भागममुणंता वालवुड्डुं गच्छस्य रक्खणट्ठाए वणदेवताए काउस्सग्गं करेंति ॥ इत्यादि”
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इस प्रकार देव-देवी के कायोत्सर्ग व उनकी थोय कहने में कोई दोष नहीं । बल्कि यह प्रवृत्ति करने में अनेक शास्त्रों का समर्थन प्राप्त है । अविच्छिन्न सुविहित परम्परा का समर्थन है और प्रवृत्ति करने में ही औचित्य है ।
उचित प्रवृत्ति धर्म का मूल है । इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि, 'धर्मादिमूलमौचित्यम्'
इसलिए देव-देवीके कायोत्सर्ग व उनकी थोयका निषेध करनेवाले त्रिस्तुतिक मतवालों की बातें शास्त्रविरोधी एवं परम्परा विरुद्ध हैं।
प्रश्न : देवसि प्रतिक्रमण की आदिमें तथा राई प्रतिक्रमणके अंत में चैत्यवंदना करने का विधान किस शास्त्र में है ?
उत्तर : देवसि प्रतिक्रमण की आदिमें तथा राई प्रतिक्रमण के अंतमें चैत्यवंदना करने की विधि प्रवचन सारोद्धार तथा यतिदिन चर्या में कही गई है।
(प्रवचन सारोद्धार ग्रंथकी रचना पू. आ. भ. श्री नेमिचंद्रसूरिजी महाराजाने की है और उस पर टीका की रचना पू. आ. भ. श्री सिद्धसेनसूरिजीने की है ।)