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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
इत्यादि । द्विसंध्यं प्रतिक्रामतो गृहस्थस्यापि यतेरिव सप्तवेलं चैत्यवंदनं भवति । यः पुनः प्रतिक्रमणं न विधत्ते तस्य पंचवेलं जघन्येन तिसृष्वपि संध्यासु ॥
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भावार्थ : साधुओं को एक अहोरात्र में सात बार चैत्यवंदना करनी चाहिए तथा श्रावकों को तीन बार, पांच बार और सात बार करनी चाहिए । इसमें साधुओं की एक अहोरात्रि में सात बार चैत्यवंदना कैसे होती है यह बताया गया है।
एक प्राभातिक (सुबह) प्रतिक्रमण के अंतमें, इसके बाद जिनमंदिर में जाकर दूसरी करनी होती है। इसके बाद तीसरी भोजन के समय, तत्पश्चात् चौथी भोजन करने के बाद, संवरण के निमित्त पच्चक्खाण लेना हैं, वह पच्चक्खाण चैत्यवंदन करके लेना होता है। अर्थात् भोजन के बाद चौथी चैत्यवंदना । पांचवी संध्या के प्रतिक्रमण के प्रारम्भमें, छठवीं रात्रिमें सोते समय तथा सातवीं सुबह जागने के बाद करनी होती है । साधुओं के लिए ये सात चैत्यवंदना करने के समय हैं।
श्रावक यदि उभयकाल प्रतिक्रमण करता हो, तो साधुकी तरह सात बार चैत्यवंदना करे और प्रतिक्रमण न करता हो, तो पांच बार और जघन्य से तीनबार तीन संध्या को तो करे ही ।
उपरोक्त प्रवचन सारोद्धार मूल ग्रंथ व उसकी टीका में स्पष्ट रुप से देवसि प्रतिक्रमण की आदिमें तथा राई प्रतिक्रमण के अंत में चैत्यवंदना करने को कहा गया है।
चौर्यासी हजार श्लोक प्रमाण स्याद्वाद रत्नाकर ग्रंथ के रचयिता पू.आ.भ.श्री वादीदेवसूरिजी ने यतिदिन चर्या में भी गाथा - ६५ में उपरोक्त बात कही है।