________________
१४६
त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
नहीं अथवा हो तो भी कोई कार्य करनेवाला नहीं, ऐसा कहना श्रुतदेवी की
आशातना है । '
यहां श्रुतदेवता के रुपमें श्रुताधिष्ठात्री देवी का ही व्याख्यान करना उचित है। जिनकी श्रुतसागर के प्रति भक्ति है, उनके हे! श्रुताधिष्ठातृ देवता ! ज्ञानावरणीय कर्म के समूह का नाश करें ।
इसी प्रकार वाक्यार्थ की उपपत्ति ( संगति) होने से तथा व्याख्यानांतर के विषयमें श्रुतरुप देवता श्रुतसागर में भक्तिवालों के ज्ञानावरणीय कर्मोंका क्षय करें, यह अर्थ (व्याख्यान) तो पूर्वमें कई बार कह चुके हैं। इस कारण यह पक्ष स्थिर बनता है कि, श्री अरिहतं परमात्माका पक्ष करनेवाली श्रुतदेवी, श्रुतदेवता 'के रुप में ('सुयदेवया' पद से ) ग्रहण की जाती हैं।
पाक्षिक सूत्रकी टीका के उपरोक्त पाठ में श्रुतदेवता से श्रुताधिष्ठातृ श्रुतदेवी ( व्यंतर निकाय की देवी विशेष ) ग्रहण की हैं। इसलिए लेखक श्री की बात असत्य है।
मुनिश्री जयानंदविजयजी ने भी अपनी पुस्तकों में श्रुतदेवता का अर्थ जिनवाणी किया है, यह योग्य नहीं है।
भगवती सूत्र तथा पंचसंग्रहमें श्रुतदेवता का अर्थ जिनवाणी किया है, यह बात सही है, किन्तु पाक्षिकसूत्र के अंतमें मांगलिक के रुपमें बोली जानेवाली ‘सुयदेवया' गाथामें श्रुतदेवता पद से श्रुत अधिष्ठात्री श्रुतदेवी ही ग्रहण करनी है। टीकाकार श्रीने खुलासा किया है कि, श्रुतकी स्तुति तो पूर्वमें कई बार कर चुकें हैं । इसलिए यहां श्रुत अधिष्ठात्री देवी से प्रार्थना की गई है और यही औचित्य है।
टीकाकारश्रीने कल्पभाष्य ग्रंथके पाठ के आधार पर दूसरा एक खुलासा किया है कि, 'जो वस्तुएं लक्षणयुक्त होती हैं, वे सभी