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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
(२) (अ) वंदित्तासूत्र में ‘सम्मदिट्ठी देवा' पद कहना उचित नहीं । परन्तु उसके स्थान पर मरण समाधि पयन्ना का 'सम्मत्तस्स य सुद्धि' यह पद कहना युक्तिसंगत एवं निर्दोष है। (आ. यतीन्द्रसूरिकृत श्री ' सत्य समर्थक प्रश्नोत्तरी, ' पु.पृ.-३८)
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(आ) इसीलिए' सम्मदिट्ठी देवा' पद के स्थान पर ' सम्मत्तस्स य सुद्धि' पद उचित है। (मुनि जयानंदविजयजी कृत 'अंधकार से प्रकाश की ओर' पु. पृ. - ४०/ सत्य की खोज, पृ. - १०५)
(३) सम्यग्दृष्टि देवता से समाधि - बोधि नहीं मांगी जा सकती और सम्यग्दृष्टि देवता समाधि-बोधि देने के लिए समर्थ नहीं । (श्री सत्य समर्थक प्रश्नोत्तरी, पु.पृ-३८, अंधकार से प्रकाश की ओर, पृ- ३७,३८, सत्य की खोज, पृ-१०३,१०४)
(४) वंदित्तासूत्र श्रावककृत है कि गणधरकृत है ? इस विषयमें मुनि जयानंदविजयजी ने अपनी पुस्तक के पृ. ३७ पर प्रश्नोत्तरी में बात को मरोड़ने का प्रयास किया है।
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(५) मुनि जयानंदविजयजी ने अपने प्रथम पुस्तक में अन्य लेखकों की संभवित बातों को अपने पक्षमें निश्चयात्मक ढंग से रखने का प्रयत्न किया है।
प्रश्न : त्रिस्तुतिक मत के लेखकों द्वारा कुतर्क करके उठाए गए मुद्दों का आपके पास क्या उत्तर है ?
उत्तर : एक बात निश्चित है कि जिसका अभिप्राय सत्य हो, उसे कहीं से भी शास्त्र का समर्थन मिल ही जाता है और जिसका अभिप्राय ही असत्य है, उसे शास्त्र का समर्थन नहीं ही मिलता है । अपनी बात को किसी भी तरह से सिद्ध करने के लिए कुतर्क करने ही पडते है।
समर्थ शास्त्रकार परमर्षि पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरिजीने योगदृष्टि समुच्चय ग्रंथमें कुतर्कों को अनेक प्रकार से महाभयंकर भावशत्रु बताया है।