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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
स्तुति निर्णय भाग-१ में (विभाग-२में) दर्शाया गया है। इससे ( उपरोक्त ग्रंथके पाठसे ) श्री सत्य समर्थक प्रश्नोत्तरी' पुस्तक के पृष्ठ-३८ की निम्न बात असत्य है, शास्त्रविरोधी है।
'देवी-देवता स्वयं कर्मलिप्त हैं। विषयपिपासु है और कषायरंग से रंगे हुए हैं। वे किसी भी आत्मा को कर्ममुक्त नहीं कर सकते और न ही समाधि-बोधि दे सकते हैं। इसलिए 'सम्मदिट्ठी देवा' पद वंदित्तासूत्रमें कहना उचित नहीं।
लेखकश्री की बात वृंदारुवृत्ति तथा अर्थदीपिका टीका से विरुद्ध है। वर्तमानमें श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र की प्रसिद्ध टीकाओं में लेखक द्वारा कही गई बात है ही नहीं। परन्तु समाधि-बोधि दान में देव-देवी का सामर्थ्य युक्ति से समझाया गया है। इसलिए देव-देवी के पास समाधि-बोधि मांगना युक्तियुक्त है
संगत है।
दोनों टीकाकार परमर्षियों ने वंदित्तासूत्र की ४७वीं गाथा के उत्तरार्ध में 'सम्मदिट्ठी देवा' पद को उसी तरह ही रखकर चर्चा की है। जो हम पूर्व में वृंदारुवृत्ति के पाठमें देख चुके हैं। इसी प्रकार अर्थदीपिका टीका में भी है । सूत्रकार परमर्षि ने जो 'सम्मदिट्ठी देवा' पद; ४७ वीं गाथा के उत्तरार्धमें लिखा है। उस पद को उसी प्रकार रखकर टीकाकारोंने सम्यग्दृष्टि देवता बोधि-समाधि देने में समर्थ हैं, इसकी युक्तिसह विस्तृत चर्चा की है। इसलिए त्रिस्तुतिक मत के दोनों लेखकों ने 'सम्मतस्स य सुद्धि' पद रखने की बात की है, यह सूत्रविरोधी एवं टीका विरोधी है । जो सूत्रविरोधी हो, वह पद रखा ही नहीं जा सकता।अन्यथा सूत्रभेदक कहलाता है। त्रिस्तुतिक मत के लेखकोंने यह कार्य अथवा प्रचार करके सूत्रभेदक का काम तो नहीं किया न ? यह पाठक स्वयं सोचें । जो सूत्र भेदक हो वह उत्सूत्रक कहलाए या नहीं ? यह भी पाठकगण सोचें।