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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
बोधरोगः शमाऽपायः श्रद्धाभङ्गोऽभिमानकृत् । कुतर्कश्चेतसो व्यक्तं, भावशत्रुरनेकधा ॥८७॥
कुतर्क (आत्माको संप्राप्त) बोध के लिए रोग समान है। (जैसे रोग शरीरका सामर्थ्य हर लेता हैं, वैसे ही कुतर्क आत्माको प्राप्त हुए हेयोपादेयादि के बोध को, कि जो आत्मा की स्वास्थ्य दशा है, उसे हर लेते हैं ।)
कुतर्क शम का नाशक है । कुतर्क के कारण असत् अभिनिवेश पैदा होता है। क्योंकि, कुतर्कों से उठनेवाली कल्पनाओं से अपनी बातें सच्ची लगती हैं । जो स्वमत का राग तथा परमत का द्वेष कराती है । जिनके योग से उपशम का नाश होता है।
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कुतर्क श्रद्धा से भ्रष्ट करनेवाला है । क्योंकि, 'आगमिक पदार्थों को आगम से समझना' इस शास्त्रवचन को भुला देता है । इस कारण जो आगमिक पदार्थ युक्ति से न बैठें, उनमें अश्रद्धा कराते हैं । आगमिक पदार्थों को युक्ति से ही सच मानने का आग्रह श्रद्धा से भ्रष्ट कर देता है ।
कुतर्क मिथ्याभिमान कराता है । क्योंकि कुतर्क करके अन्य की बांते झूठी सिद्ध करके (कुतर्क) स्वोत्कर्षकी भावना प्रबल बनाता है। इसीलिए कुतर्क अनेक प्रकार से आत्मा का भावशत्रु है ।
यहां उपरोक्त सभी मुद्दों का विस्तृत उत्तर दिया जाता है। सर्व प्रथम सम्यग्दृष्टि देवताओं से समाधि - बोधि मांगी जा सकती हैं और वे देने में सक्षम भी हैं, इस बात को पूर्वमें एक प्रश्नके उत्तरमें पू.आ.देवेन्द्रसूरिजी कृत वृंदारुवृत्ति का पाठमें (अभिधान राजेन्द्र कोष के माध्यम सें) देखा है। और...
श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्र की 'अर्थदीपिका' टीकामें गाथा- ४७ की टीकामें पू. आ. भ. श्री रत्नशेखरसूरिजीने भी उपर दर्शाए अनुसार ही सम्यग्दृष्टि देवताओं को समाधि-बोधि देने में समर्थ दर्शाया है । यह पाठ चतुर्थ