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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
उत्तर : हां है, पू.आ.भ.श्री कुलमंडनसूरिजी कृत 'विचारामृत संग्रह ' ग्रंथमें भी उपरोक्तानुसार बात की गई है तथा एक सुंदर खुलासा भी किया गया है।
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एवं चागमस्वरुपे स्थिते दशवैकालिकादीन् परिमितानेव ग्रन्थान् विमुच्य शेषाणां साधुप्रतिक्रमणसूत्रपाक्षिकसूत्रादिबहुग्रन्थानां विरचयितारः केऽपि श्रुतस्थविरा नामग्राहं न श्रुयन्ते तथापि सर्वेऽपि ते ग्रन्थाः प्रमाणमेव, एवं तेषामेव श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रादीनामपि निर्युहकश्रुतस्थविरनामपरिज्ञानेऽप्यागमत्वं प्रमाणत्वं चाविकलमेवोभयत्रापि प्रामाण्यहेतूनां समानत्वात् एवं च गणधरकृतमुपजीव्य श्रुतस्थविरैर्विरचितत्वादावश्यकादिसकलानंगप्रविष्टश्रुतस्य स्थविर - कृतत्वमपि सिद्धान्तेऽभ्यधायीति तात्पर्यार्थः, तथा सम्यक् सिद्धान्तहृदयवेदिभिः पूर्वबहुश्रुतैरपि प्रतिक्रमणाद्यावश्यकं सिद्धान्तोपदिष्टतया भणितं ।
भावार्थ : इस प्रकार आगम स्वरुप निश्चित होने बावजूद श्री दशवैकालिक आदि परिमित ग्रंथोको छोड़कर शेष साधु प्रतिक्रमणसूत्र, पाक्षिक सूत्रादि बहु ग्रंथो के रचयिता के तौर पर किसी भी श्रुतस्थवीर का नाम सुनाई नहीं देता है। तो भी वे सभी ग्रंथ प्रमाणभूत हैं ही। इसी प्रकार श्राद्ध प्रतिक्रमण आदि ग्रंथो के रचयिता के तौर पर भी श्रुतस्थवीर का नाम ज्ञात न होने के बावजूद इस ग्रंथमें आगमत्व एवं प्रमाणत्व पूर्णतया है ही। क्योंकि, दोनों स्थलों पर प्रमाणता के कारण समान है और इस प्रकार पू. गणधरकृत आगम का आलंबन लेकर श्रुतस्थवीरों द्वारा रचे गए होने से आवश्यकादि सकल अनंगप्रविष्ट श्रुत सिद्धांत के रुप में आगम में कहा गया है। ऐसा तात्पर्य समझें । ( कहनेका आशय यह है कि, आचारांग आदि अंग प्रविष्ट श्रुत के कर्ता गणधर भगवंत हैं और आवश्यक आदि अनंग प्रविष्ट श्रुत के कर्ता श्रुतस्थवीर हैं । यह आगम वचन है । इसलिए आवश्यक आदि अनंग प्रविष्ट श्रुत भी पू. गणधरकृत आगम