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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
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मगरहा
प्रश्न : त्रिस्तुतिक मत के लेखक वंदित्तासूत्र के लिए, उसकी ४७ वीं गाथा के 'सम्मदिट्ठि देवा' पद के लिए तथा गाथा के प्रमाण के लिए शास्त्रविरोधी कौन-कौन से अभिप्राय रखते हैं ?
उत्तर : सर्वप्रथम वंदित्तासूत्र की ४७वीं गाथा एवं उसका भावार्थ देखें। इसके बाद त्रिस्तुतिक मत के लेखकों के इस विषय में कुतर्क देखेंगे।
वंदित्तासूत्र की ४७वीं गाथा इस प्रकार है। मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुअंच धम्मो अ। सम्मद्दिट्ठी देवा,दितु समाहिच बोहिंच॥४७॥
भावार्थ : श्री अरिहंत परमात्मा, श्रीसिद्ध भगवान, साधु भगवंत, श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्म यह मेरे लिए मंगलरुप है। सम्यग्दृष्टि देवता मुझे समाधि (धर्म के विषय में चित्तकी स्वस्थता) तथा बोधि (परभवमें जिनधर्म-सम्यक्त्व) प्रदान करें।
• श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र की उपरोक्त गाथा में स्पष्टरुप से सम्यग्दृष्टि देवताओं से समाधि-बोधि मांगी गई है।
• त्रिस्तुतिक मतवालों को अपनी मान्यता में उपरोक्त गाथा प्रतिबंधक बनती है। इसीलिए इस मत के लेखक मौखिक व लिखित रुप से इस गाथा के लिए अलग-अलग दुष्प्रचार करते हैं। इस दुष्प्रचार का आकार निम्नानुसार है।
(१) कुछ प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में वंदित्तासूत्र ४३ गाथात्मक देखने को मिलती हैं और ४३वीं गाथा में समाप्ति सूचक वंदामि जिणे चउव्वीसं' यह अन्त्य मंगल भी है। इससे लगता है कि, वंदित्तासूत्र ४३ गाथा तक ही कहलाता था और बाद में देव-देवी की स्तुति के पक्षकारों ने उसमें अन्य सात गाथाएं शामिल की हैं तथा अपने मत की सिद्धि के लिए उन पर चूर्णि भाष्य एवं टीका आदि की रचना की है। (आ.श्री यतीन्द्रसूरि कृत 'श्रीसत्य समर्थक प्रश्नोत्तरी ।' पुस्तक, पृष्ठ-३८)