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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी (iv) तत्कालवर्ती बहुश्रुतों द्वारा सम्मत एवं अन्य द्वारा आचरित प्रायः वही होता है, जो आगम व्यवहारी तथा युगप्रधानादि द्वारा प्रवर्तित हो : जैसे कि, पर्युषणा चतुर्थी । अन्यथा, 'जिसे जो परम्परागत, उसे वहीं प्रमाण' इन सब वचनों का असंभव मानना पड़ेगा। अर्थात् 'जिसे जो परम्परागत, उसे वही प्रमाण' इत्यादि वचनों से, किसीको भी अयोग्य परम्परा मानने में जो आपत्ति बताई गई है, वह नहीं बताई जा सकेगी : क्योंकि, परम्परा भी कहीं किसी भी पुरुष द्वारा शुरु की गई स्वीकृत की जाती है ? परम्परागत भी जो सातिशायी पुरुषमूलक न हो, उसे परम्परागत कहना संभव ही नहीं।
(v) श्री भगवतीजी सूत्र में प्रावचनिक पुरुषों से सभी प्रवृत्तियां प्रमाण हैं, ऐसा नहीं कहा है क्योंकि, श्रुतव्यवहारी ने जो प्रवर्तित हो उसमें वही प्रमाण होता है, जो आगम का अनुसरण करनेवाला हो, अन्यथा प्रवचन व्यवस्था का विप्लव उत्पन्न होता है।
(i) तस्मात् स एवाचार्यो जिनसदृशः यो जिनमतं सम्यक् यथावस्थितं प्रकाशयति, इतरथा स पापपुञ्जः - केवलपापात्मा परित्याज्यः - दूरं दूरेण परिहरणीयः, कैः १ पुण्यसंज्ञैः पुण्यामिथ्यात्वादिकालुष्याप्रतिहता संज्ञा येषां ते तथा, यद्वा पूर्णसंज्ञाः सम्यग्दृष्टय इत्यर्थस्तैः पुरुषैर्जिनवचनवितथप्ररुपको दर्शनमात्रतोऽपि त्याज्य इति।
सूरिकृतमपि-आचार्यप्रवर्तितमपि चिअत्ति एवकारार्थे तदेव प्रमाणं-सत्यतयाऽभ्युपगन्तव्यं यदशठभावेन-निर्मायितया ऋजुभावेने -त्यर्थः संजनितं-सम्यक् पर्यालोचनया विहितं, तदपि निरवयं-निष्पापं प्रवचनानुपघाति तथाऽन्यैरनिवारितं-'मा इत्थं कुरु' इत्येवंरुपेण नान्यैर्बहुश्रुतै- स्तत्कालवर्तिभिः प्रतिषिद्धम्, एवंविधमपि बहुश्रुतानामनुमतं तत्कालवर्तिसर्वगीतार्थसम्मतं तथा पर्युषणाचतुर्थी।
(ii) यत्किंचिदाचार्यप्रवर्तितस्य प्रामाण्यमभ्युपगमे प्रवचन