________________
त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
१०९
परिहर्त्तव्याः, तथा आज्ञाशुद्धेषु सम्यगधीतजिनागमा- चारवशात् शुद्धिमागतेषु साधुषु श्रावकेषु वा, प्रतिबंधो बहुमानः कार्यः॥१४६॥" ___(४) पू.सुविहित शिरोमणि आचार्य भगवंत श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा द्वारा रचित श्रीयोगविंशिका नामक ग्रंथ की पू.महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराजने व्याख्या लिखी है। इस व्याख्या में वे कहते हैं कि, शास्त्र की नीति से जो चलनेवाला हो, वह एक महाजन है। अज्ञान सार्थो से फायदा क्या ? क्योंकि, जो अंधा सा होता है वह देखकर भी देख नहीं सकता । संविग्नजनोंने जिसका आचरण किया हो, श्रुतवाक्यों से जो अबाध्य हो और जो पारम्पर्य विशुद्धिपन हो, वह आचरण जीत व्यवहार कहलाता है । श्रुत एवं उसके अर्थ का आलम्बन नहीं करनेवाले असंविग्नोने जो आचरण किया हो, वह जीत व्यवहार नहीं बल्कि अंध परम्परा है। आकल्प व्यवहार के लिए श्रुत व्यवहारिक नहीं, ऐसा कहनेवाले के लिए शास्त्रमें बड़ा प्रायश्चित दर्शाया है। इसलिए एक मात्र ज्ञानियों द्वारा बताई गई विधि के रसिक जनोंको, श्रुतानुसार करके संविग्नजीत आलंबन करने योग्य है, यह भगवान श्रीजिनेश्वरदेवों की आज्ञा है। देखो
"एकोऽपि शास्त्रनीत्या यो, वर्तते स महाजनः । किमज्ञसाथैः शतम-प्यन्धानां नैव पश्यति ॥४॥
यत्संविग्नजनाचीर्ण, श्रुतवाक्यैरबाधितम् । तज्जीतं व्यवहाराख्यं, पारम्पर्यविशुद्धिमत् ॥५॥ यदाचीर्णमसंविग्नैः, श्रुतार्थानवलम्बिभिः । न जीतं व्यवहारस्त-दन्धसंततिसम्भवम् ॥६॥
आकल्पव्यवहारार्थ, श्रुतं न व्यवहारकम् । इति वक्तुमहत्तन्त्रे, प्रायश्चित्तं प्रदर्शितम् ॥७॥
तस्मांच्छुतानुसारेण, विध्येकरसिकैर्जनैः। संविग्नजीतमवलम्ब्य-मित्यज्ञा पारमेश्वरी ॥८॥"