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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
१०७ को आचीर्ण, आचरणा अथवा जीत स्वरुप माना, कहा और आचरण में लाया जा सकता है। श्री बृहत्कल्पसूत्र भाष्यमें यह बात जीत के लक्षण दर्शाने के साथ इस प्रकार कही गई है। देखें....
"असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावज्जं । ण णिवारियमण्णेहिं य, बहुमणुमयमेत्तमाइण्णं ॥४४९९॥
'अशठेन' रागद्वेषरहितेन कालिकाचार्यादिवत् प्रमाणस्थेन सता 'समाचीर्णम्' आचरितं यद् भाद्रपदशुद्धचतुर्थीपर्युषणापर्ववत् 'कुत्रचित्' द्रव्यक्षेत्रकालादौ 'कारणे' पुष्टालम्बने 'असावा' प्रकृत्या मूलोत्तरगुणाराधनाया अबाधकम् 'न च' नैव निवारितम् 'अन्यैः' तथाविधैरेव तत्कालवर्तिभिर्गीतार्थैः, अपि तु बहु यथा भवति एवमनुमतमेतदाचीर्णमुच्यते ॥४४९९॥" ___ (३) पू.महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराजा कहते हैं कि, आचरणा को मान्य करने की श्रीजैनशास्त्रोंकी अथवा भगवान श्री जिनेश्वरदेवोंकी आज्ञा है-यह सही है, किन्तु उसी आचरणा को मान्य करने की जिनाज्ञा है, जो आज्ञा से विरुद्ध न हो। असंविग्नाचारणा, जो असद् आलंबन से की होती है, उस आचरणा को मान्य करने की श्री जिनाज्ञा नहीं है। असंविग्न दुःषमाकालादि दोषों के आलंबन से अपने प्रमाद को मार्ग के तौर पर व्यवस्थापित करते हैं, यह उचित नहीं। क्योंकि, दुःषमाकाल में जैसे विषादि में नाशकता विद्यमान ही है, वैसे ही प्रमाद की भी अनर्थ करने की शक्ति नष्ट नहीं हुई बल्कि विद्यमान ही है। श्री जिनाज्ञा से अविरुद्ध आचरणा का लक्षण 'अशढेण' वाली गाथा में दर्शाया गया है, ऐसा माना गया है। इस प्रकार आचरणा के बारे में भी आज्ञा की सिद्धि करने के बाद, शास्त्रकार महापुरुषने यह भी कहा है कि, परपक्ष की बात तो दूर रही स्वपक्ष में भी दुःषमाकाल के दोष से ऐसे श्रमण वेषधारी लोग असंख्य देखने को मिलते हैं, जो श्रमण गुणों के व्यापार से मुक्त हैं । उद्दाम अश्व जैसे हैं और निरंकुश हाथियों जैसे हैं । इन सबको दूर से ही विष की भांति त्याग देना