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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी परम्परा ही आदरणीय तथा सेवनीय होती है।
अशठ, भवभीरु, संविग्न तथा गीतार्थ महापुरुषों की सुविहित आचरणा (परम्परा) को शास्त्रीय परिभाषा में 'जीत व्यवहार' कहा जाता है।
प्रश्न :जीत व्यवहार का लक्षण किन ग्रंथोमें हैं ? यह शास्त्रपाठों के साथ बताइए?
उत्तर : जीतकल्प भाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, उपदेश रहस्य, योगविंशिका की टीका, गुरुतत्त्व विनिश्चय, भगवती सूत्रकी टीका, प्रवचन परीक्षा, तत्त्वतरंगिणी आदि ग्रंथो में जीत व्यवहार के लक्षण बताए गए हैं।
जीत व्यवहार के लक्षण :
१. अब हम जीत आचार के लक्षण तथा इन लक्षणों के महापुरुषों द्वारा किए गए स्पष्टीकरण के विषयमें शास्त्राधारों के साथ जानकारी देते हैं।
___ (१) वृत्त अर्थात् एक बार प्रवृत्त, अणुवृत्त अर्थात् दूसरी बार प्रवृत्त, प्रवृत्त अर्थात् तीसरी बार प्रवृत्त और महापुरुषों द्वारा अनेक बार आचरित व्यवहार, यह व्यवहार जैसे बहुवार बहुश्रुतों द्वारा आचरित हो, वैसे ही बहुश्रुतों से निषेध किया हुआ न हो, तो ही यही जीतकृत माना जाता है। यह बात श्री जीतकल्पभाष्य में निम्नलिखित गाथा के माध्यम से कही गई है।
बहुसो बहुस्सुए हिं जो वत्तो ण य णिवारितो होति । वत्तणुपवत्तमाणं (वत्तणुवत्तपवत्तो), जीएण कतं हवति एयं ॥६७७॥
(२) अशठ अर्थात् रागद्वेषरहित, प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा युगप्रधान आचार्य भगवान श्रीमद् कालिकसूरीश्वरजी महाराजा जैसे संविग्न गीतार्थादिगुणभाक् पुरुषने द्रव्य-क्षेत्र-कालादिके विषयमें उस प्रकारका पुष्टालंबन स्वरुप कारण होने के बावजूद, जो असावध अर्थात् पंच महाव्रतादि मूल गुण तथा पिंडविशुद्धि आदि उत्तरगुण, इन मूलोत्तर गुणों की आराधना को बाध करने के स्वभाव से रहित आचरण किया हो और उस आचरण को यदि तत्कालवर्ती तथाविध गीतार्थोंने निषिद्ध न किया हो, यही नहीं बल्किबहुमत किया हो, तो उस आचरण