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त्रिस्ततिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
प्रश्न : क्या पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजी से पहले प्रतिक्रमणमें श्रुतदेवता आदि के कायोत्सर्ग होते थे ? श्रुतदेवता आदि की स्तुति बोली जाती थी? श्रुतदेवता-क्षेत्रदेवताका प्रतिदिन कायोत्सर्ग करने का विधान किस ग्रंथ में है? यह कायोत्सर्ग करने से क्या लाभ होता हैं ?
उत्तर : पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजी से पहले भी प्रतिक्रमण में श्रुतदेवता आदि के कायोत्सर्ग होते थे। इसका साक्षी 'विचारामृत संग्रह' ग्रंथ है। इस ग्रंथ में पू.आ.भ.श्री कुलमंडनसूरिजीने कहा है कि
"श्री वीरनिर्वाणात् वर्षसहस्र पूर्वश्रुतं व्यवच्छिन्नं ॥ श्रीहरिभद्रसूरयस्तदनु पंचपंचाशता वर्षेः दिवं प्राप्ताः तद्ग्रंथकरणकालाच्चाचरणायाः पूर्वमेव संभवात् श्रुतदेवतादिकायोत्सर्गः पूर्वधरकालेऽपि संभवति स्मेति ॥"
भावार्थ : श्री वीर परमात्माके निर्वाण से हजार वर्ष व्यतीत होने के बाद पूर्वश्रुतका व्यवच्छेद हुआ। इसके बाद पचपन (५५) वर्ष गुजरने के पश्चात् श्री हरिभद्रसूरिजी स्वर्ग गए। इन श्री हरिभद्रसूरिजी के ग्रंथकरण के काल से पहले भी आचरण जारी था। इसलिए श्रुतदेवतादिक के कायोत्सर्ग पूर्वधरों के काल में भी संभव थे।
पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजी ने पंचवस्तु ग्रंथमें गाथा-४९१के उत्तरार्ध में कहा है कि......
आयरणा सुअदेवयमाईणं होइ उस्सग्गो ॥४९१॥
श्रुतदेवता आदि कायोत्सर्ग आचरण से होता है। (आदि पद से क्षेत्रदेवता एवं भवनदेवता का कायोत्सर्ग ग्रहण करें।) पू.आ.भ.श्री के समय से पूर्व के कालमें श्रुतदेवतादि के कायोत्सर्ग होते हों तब ही पू.आ.भ.श्री कह सकते हैं कि, आचरण से श्रुतदेवतादि का कायोत्सर्ग होता है और उनके पूर्व का काल पूर्वधर महर्षियों का था। इससे सिद्ध होता है कि, पूर्वधरों के काल से श्रुतदेवतादिका कायोत्सर्ग होता है। किसी को प्रश्न होगा कि, श्रुतदेवतादि