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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी निर्विकल्पता से मान्य करना ही चाहिए । ऐसा पू.आ.भ.श्री रत्नशेखरसूरिजी कृत 'अर्थदीपिका' टीका का सार है । सम्यग्दृष्टि देवताओं से की जानेवाली प्रार्थना आगमों में कही है और पूर्व श्रुतधर महर्षियों ने आचरण में ली है, इसलिए वहमान्य ही करना चाहिए।
सम्यग्दृष्टि देवताओं से 'अर्थदीपिका' टीका के टीकाकार श्री ने मोक्ष मांगने से मना किया है, यह बात सही है । परन्तु मोक्षप्राप्ति के कारणभूत धर्मध्यानमें आनेवाले अंतरायों का नाश करने के लिए सम्यग्दृष्टि देवताओं से प्रार्थना करने का निषेध नहीं किया है।
पू.आ.भ.श्री रत्नशेखरसूरिजीने युक्ति-दृष्टांत एवं आगम वचन से सम्यग्दृष्टि देवताओं की समाधि-बोधि देने की समर्थता बताई है, फिर भी उस ओर दृष्टि किए बिना मुनि जयानंदविजयजी कदाग्रहवश उसी पुस्तकके पृष्ठ-१०५ पर लिखते हैं कि,
"रागी द्वेषी देव के पास समाधि-बोधि देने की शक्ति नहीं। और जो दे नहीं सकते उनसे मांगने का प्रयत्न विफल होता हौ । आगमों में ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता कि जिसमें किसीने समाधि-बोधि मांगी हो और उस देवने उसे समाधि-बोधि दी हो।
इन देवों से समाधि-बोधि मांगने से तीर्थंकर भगवंतो की लघुता होती है। 'दितुं समाहिं च बोहिं च' अर्थात् तीर्थंकर और सम्यग्दृष्टि देव दोनों समान हो जाते हैं, इस प्रकार तीर्थंकर भगवंत की लघुता होती है, जो बड़े से बड़ा दोष है।"
उपरोक्त लेख में लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजीने पू.आ.भ.श्री रत्नशेखरसूरिजी से खुद को अधिक बुद्धिमान दर्शाने का प्रयत्न
करते हुए अनेक कुतर्क किए हैं । परन्तु जैसे सूर्य के सामने धूल फेंकने से उसका तेज नहीं ढंक जाता है। वैसे ही कुतर्क करने से
शास्त्रकार परमर्षियों के सूर्य के तेज समान टंकशाली वचन निस्तेज ( असत्य) सिद्ध नहीं होते । पाठक सोचें कि, पू.आ.भ.श्री