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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
की है इस प्रकार से नहीं की गई है। उनकी व्याख्या उत्सूत्र है। शास्त्र विरोधी है। मुनिश्री जयानंदविजयजी इस प्रश्नके उत्तरमें आगे लिखते हैं कि, 'भाव अनुष्ठानमें याचना चाहना को कोई स्थान नहीं होता । भाव अनुष्ठानों में याचना करनी और इच्छा रखनी यह तो विपरीत मार्ग है। "
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यहां मुनिश्री यह कहना चाहते हैं कि, 'भाव अनुष्ठान में भौतिक याचना करने के लिए कोई स्थान नहीं है । द्रव्यानुष्ठान में भौतिक याचना करने के लिए स्थान है | इसलिए भाव अनुष्ठानमें देव-देवी के कायोत्सर्ग आदि न हों तथा द्रव्यानुष्ठान में देव-देवी कायोत्सर्ग आदि होते हैं।'
यह लेखक श्री की अनभिज्ञता है, कि लोगों को गलत समझाकर अपने मत की सिद्धि करने का इरादा है ।
जैनशासन के किसी भी अनुष्ठान में भौतिक याचना करनी ही नहीं हैं। किसी भी शास्त्राने श्री जिनेश्वर परमात्मा से मोक्ष एवं सम्यग्दृष्टि देवताओं से भौतिक सुख मांगने की बात ही नहीं की है। इसलिए मोक्ष की मांग तथा भौतिक सुख की मांग का अनुसरण करके मुनिश्री ने अनुष्ठानमें जो दो भेद बताए हैं, वे काल्पनिक होने के कारण बेबुनियाद हैं । शास्त्रनिरपेक्ष हैं ।
शास्त्रकार परमर्षियों ने तो कहा है कि, , जो अनुष्ठान कर्मक्षय-मोक्ष के उद्देश्य से करने को कहा गया है, वह अनुष्ठान आलोक अथवा परलोकके भौतिक सुख के लिए किया जाए, तब वह अनुष्ठान विषानुष्ठान तथा गरलानुष्ठान बन जाता है। वही अनुष्ठान कर्मक्षय- मोक्ष के लिए किया जाता है, तब वह तद्हेतु अथवा अमृत अनुष्ठान बनता है ।
मुग्ध जीवों के लीए बताए गए शास्त्र विधानों को सर्व सामान्य रुप से प्ररूपित करनेवाले वास्तव में मार्ग भटक गए हैं ।
मुक्ति के अद्वेष या मुक्ति के आंशिक राग की विद्यमानता में जो अनुष्ठान हो वह तद्हेतु अनुष्ठान कहा जाता है। (मुक्ति-अद्वेष बत्रीसी ।)