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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
अनायतनसेवी होने के कारण उन्हें संवासानुमति लगती है।
पूर्वपक्ष की इस दलील में ग्रंथकार श्रीने कहा कि, समवसरण में भी देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि होती है और इसके बावजूद साधु समवसरण में देशना सुनते हैं। इसलिए समवसरण में जानेवाले साधुओं को संवासानुमति का दोष लगने की आपत्ति आएगी। परन्तु ऐसा नहीं हैं। इसमें दोष नहीं माना गया है।
जबकि स्थानकवासी (पूर्वपक्षी) कहते हैं कि साधु, समवसरण में देशना सुनने तक ही रहते हैं। अधिक समय तक नहीं रहते। इसलिए अनायतन का अवसर नहीं आता। (अर्थात् साधु अनायतनसेवी बनता नही है।)
तब ग्रंथकार ने पूर्वपक्ष की बात को आगे धरकर स्पष्टता की कि, जैसे समवसरण में साधु देशना सुनने के अलावा नहीं रुकते। वैसे ही जिनालय में भी व्यवहार भाष्य की ' तिन्निवा' तथा 'दुब्भिगंध' इन दो गाथाओं के आधार पर तीन स्तुति का पठन करने से अधिक रहने की अनुज्ञा नहीं, ऐसा कहते हैं और इसलिए अनायतन सेवना का दोष नहीं ।
पूर्व में एक प्रश्न के उत्तर में 'तिन्निवा' गाथा के तात्पर्य की विस्तार से चर्चा की है।
व्यवहारभाष्य की इस 'तिन्निवा' गाथा की टीका तथा पू. आ.भ. श्री धर्मघोषसूरिजी के संघाचारभाष्यमें इस बारे में स्पष्टता का अर्थ यह है कि, साधु भगवंत जिनमंदिर में नहीं रुकते । अथवा प्रतिक्रमण के अंतमें जैसे मंगल के अवसर पर 'नमोऽस्तु वर्धमानाय ० ' तथा 'विशाललोचन०' बोला जाता है, वैसे ही चैत्यवंदन के अंत में प्रणिधानार्थ मंदिर में रहने की अनुज्ञा है । कारण विशेष में अधिक समय रुकने की भी अनुज्ञा है । निष्कारण नहीं । )
इसी बात को ग्रंथकारने (पूर्व में दर्शाए अनुसार) निम्नलिखित शब्दों में प्रस्तुत किया है।
.... न च देवगृहेऽपि स्तुतित्रयकर्षणात्परतोऽवस्थानमनुज्ञातं