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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
यदि लेखकश्री का एसा कहनें का आशय हो तो वह भी असत्य है । क्योंकि, आगमिक गच्छकी उत्पत्ति व उसकी मान्यता के विषयमें पू. पं. श्री कल्याणविजयजीने त्रिस्तुतिक मत मिमांसा भाग - १ के पृष्ठ ४७ पर विस्तृत चर्चा की है। यह निम्नानुसार है ।
"लेखक कहते है कि, ( त्रिस्तुतिकमत के लेखक कहते है कि, ) 'संवत् ( १२५० ) में श्रीसौधर्मसिद्धांतिक गच्छमें से आगमिक मतोत्पत्तिके करनेवाले श्रीशीलभद्राचार्य हुये तिन्होंने सर्वथा चोथी थुड़ उत्थापके एकांत तीन थुई के देववंदन स्थापन किये'
सरासर असत्य है, आगमिकमतोत्पत्ति के करनेवाले आचार्य का नाम शीलभद्र नहीं था किंतु 'शीलगण' था और उन ने सौधर्मसिद्धान्तिक गच्छमें से यह मत नहीं निकाला, वे पहले पौर्णमीयक गच्छ में थे बाद उसमें से निकलकर अंचल गच्छ में आये और पीछे आगमिक मत निकाला (देखो प्रवचन परीक्षा पत्र ३०६ )
आगमिकों ने राजेन्द्रसूरिजी की तरह तीन थुई का मत नहीं निकाला, उन का मात्र यह कथन था कि श्रुतदेवतादि के पास मोक्षकी प्रार्थना नहीं करनी चाहिये, वे यों नही कहते थे कि सम्यगदृष्टि देवकी स्तुति करने से सम्यक्त्व मलीन हो जाता है या सामायिकादिक में चतुर्थस्तुति करने से आश्रव लग जाता है । "
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पू. महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजा को प्रतिमाशतक ग्रंथ में स्थापना निक्षेपा की पूजनीयता एवं फलप्रापकता सिद्ध करनी थी । इसलिए उत्तराध्ययन सूत्र के २९वें अध्ययन के (पूर्व में वर्णित) 'थयथुई' वाले पाठ को प्रस्तुत किया है। तथा 'थयथुई' पाठगत 'स्तुति' पद का अर्थ प्रसिद्ध स्तुतित्रय किया है। इस अर्थ में ऐसा लगता है कि, 'थयथुई' वाले पाठमें स्तवन एवं स्तुति के फलस्वरुप रत्नत्रयी एवं बोधिलाभ दर्शाए गए हैं और चार थोय की देववंदना में तीन स्तुति का फल रत्नत्रयी व बोधि लाभ है। जबकि चतुर्थ स्तुतिका फल