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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
मुनिश्री जयानंदविजयजी ने प्रतिमाशतक ग्रंथ के आधार पर जो कुतर्क किए हैं, उन्हें देखने से पहले वे क्या कहते हैं यह देखते हैं। ___ "गाथा दूसरी की टीकामें – भाषांतर पृ-३६ पर अत्र स्तव स्तवनं, स्तुतिः स्तुतित्रयं प्रसिद्धम्।।
इसका भाषांतर पृ-३६ पर दिया है - उत्तराध्ययनना पाठमां जे थय थुई कहेल छे, त्यां स्तव ए स्तवार्थक छे अने स्तुति-स्तुतित्रय प्रसिद्ध छे. त्यां बीजी स्तुति स्थापना अरिहंत आगल कराय छे. (देववंदननी अंदर हाल चार स्तुतिओ कराय छे त्यां पूर्वेत्रण स्तुति कराती हती तेथी कां के स्तुतित्रय प्रसिद्ध छे.)
उपा.श्री यशोविजयजी के समयमें आगमिकगच्छ उपस्थित था। फिर भी उत्तराध्ययन सूत्रकी थयथुई शब्दकी व्याख्या स्तुतित्रय प्रसिद्धम् कहकर किया।
और भाषांतरकारने भी स्पष्ट स्वीकार किया कि देववंदन में अभी चार थुई करते है वहां पूर्व में तीन थुई करते थे। जिससे स्तुतित्रय प्रसिद्धम् लिखा अब मैनें श्री जयचंद्रगणि का पाठ इस पुस्तकमें पृ-१६४ पर दिया है। जिसमें उन्होंने गणधर
और पूर्वधरों के लिए भी देव स्तुति की संभावना की बात लिखी है वह कितनी सत्य असत्य है पाठकगण सोचे।"
लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजीने प्रतिमाशतक की गाथा-२ की टीका में से 'स्तुतित्रय प्रसिद्धम्' पद उठाकर जो चर्चा की है। उसमें प्रथम प्रतिमाशतक का पाठ देखें। ___"थयथुइ मंगलेण भंते जीवे किं जणई ? थयथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणइ, नाणदंसणचरित्त बोहिलाभसंपण्णेणं जीवे अंतकीरियं कप्पविमाणोववत्तिअं, वा आरोहणं आरोहेइ (उत्तरा. अ. २९) इति वचनेन सिद्धा अत्र स्तवः स्तवनं स्तुतिः-स्तुतित्रयं प्रसिद्धं, तत्र द्वितीया स्तुतिः स्थापनार्हतः पुरतः क्रियते, चैत्यवन्दनावसरतया च ज्ञानदर्शनश्चारित्रबोधिलाभतो निर्मलस्वर्गापवर्गसुखलाभ इति विशेषाक्षराण्यपिस्फुटीभविष्यन्त्यनुपदमेव।"