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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी उपरोक्त सिद्धांतो का अनुसरण करके शास्त्रों में द्रव्यानुष्ठान-भावानुष्ठान, द्रव्यक्रिया-भावक्रिया, द्रव्यपूजा-भावपूजा के भेद किए गए हैं । परन्तु जिसमें देव-देवी के कायोत्सर्ग किए जाएं और उनकी स्तुति बोली जाएं वह द्रव्यानुष्ठान और जिसमें यह प्रवृत्ति न होती हो वह भावानुष्ठान इस प्रकार के भेद किसी भी शास्त्रमें नहीं बताए गए हैं।
मुनिश्री ने उपर ऐसे भाव का वर्णन किया है कि, 'जिसमें सावद्य अनुष्ठान हो वह द्रव्यानुष्ठान तथा जिसमें सावद्य अनुष्ठान न हो वह भावानुष्ठान।'
लेखकश्री की यह मान्यता भी झूठी है। अनुष्ठान के आगे 'सावद्य' विशेषण लगाया है, यह शास्त्र की अनभिज्ञता दर्शाता है, क्योंकि परमात्मा द्वारा प्ररुपति कोई भी अनुष्ठान निरवद्य ही होता है। क्योंकि, स्वरुप से सावद्यता होने के बावजूद अनुबंध से निरवद्यता होने के कारण वह अनुष्ठान निरवद्य ही कहा जाता है।
__ जिसमें स्वरुप से सावद्यता हो और अनुबंध से निरवद्यता हो, ऐसे अनुष्ठानों को ‘सावद्य' बिल्कुल नहीं कहा जा सकता । किन्तु शास्त्रीय परिभाषा में उसे 'सारंभ' अनुष्ठान कहा जाता है । जिसमें स्वरुप से भी सावद्यता नहीं, बल्कि निरवद्यता ही है और अनुबंध से भी निरवद्यता है, इसे शास्त्रीय परिभाषा में अनारंभ' अनुष्ठान कहा जाता है। ___भगवान द्वारा प्ररुपित अंगपूजा-अग्रपूजा द्रव्यपूजा है तथा स्तुति-स्तवना चैत्यवंदना भावपूजा है। देववंदन भावपूजा होने के बावजूद उसमें चतुर्थ थोय बोली जाती है। इसलिए मुनिश्री की बात परस्पर विरोधी है।
इससे आगे बढ़कर देखें तो उपरोक्त लेख में मुनिश्री जयानंदविजयजी लिखते हैं कि,
__ "देव-देवीयों को निमंत्रण, उनकी स्तुति, प्रशंसा आदि द्रव्यानुष्ठान में आवश्यक है। कार्य की निर्विघ्न पूर्णाहूति के लिए उनकी सहायता लेने का विधान है और भावानुष्ठान में याचना करने से आशय की शुद्धता नहीं रहती। शुद्ध