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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
सामर्थ्य योग होता है। (परन्तु सामर्थ्य योगका फल केवलज्ञान है, उसका प्रव्रज्या के समय अभाव होने से ऐसा सामर्थ्य योग अतात्त्विक है। फिर भी दीक्षा के समय का आत्मीय सामर्थ्य सम्यग्दर्शन प्राप्त करानेवाला होता है । अथवा प्राप्त सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाकर चारित्र की परिणति की प्राप्ति कराकर (केवलज्ञान का अनन्य कारण समान) रत्नत्रयीका साम्राज्य दिलाता है। इसलिए अतात्त्विक भी सामर्थ्य योग कहलाता है ।
इसलिए दीक्षा के समय भाव की ही जबरदस्त कोटि की प्रधानता है।इसलिए ‘जिसमें भावकी प्रधानता हो वह भावानुष्ठान कहा जाता है' यह मुनि श्री की बात एक पल के लिए मान लें तो भी दीक्षा भावानुष्ठान के रुप में ही सिद्ध होती है। फिर भी दीक्षा की क्रिया के समय देव-देवी का कायोत्सर्ग एवं उनकी स्तुति बोली ही जाती है। इसलिए मुनिश्री उसे द्रव्यानुष्ठान - द्रव्यक्रिया कहने का साहस कर बैठे। यह देखकर किसी को भी कहना पड़ेगा कि, मुनिश्री की बात असत्य है। उनकेद्वारा बताए गए भेद भी असत्य - मिथ्या है।
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जिसमें भाव तक पहुंचने की योग्यता हो वह द्रव्य कहलाता है और जिसमें भगवान की आज्ञाका योग हो वह भाव कहलाता है। जिसमें भगवान की आज्ञा के योग तक पहुंचने की योग्यता हो वह प्रधान कोटि का द्रव्य कहलाता है और इस प्रकार की योग्यता न हो तो वह अप्रधान कोटि का द्रव्य कहलाता है ।
जहां जिनाज्ञानुसारिता है वहां भाव है और जहां जिनाज्ञानुसारिता नहीं वहां द्रव्यता है ।
जहां स्वरुप से सावद्यता हो और अनुबंध से निरवद्यता हो वह द्रव्यपूजा कहलाती है। द्रव्यपूजा में भी भाव का अभाव तो नहीं हैं । (द्रव्यपूजा के समय भी जिनेश्वर परमात्मा के गुणों का बहुमानभाव तथा उन गुणों को प्राप्त करने का भाव होता ही है।) जिसमें स्वरुप से सावद्यता न हो वह भावपूजा कहलाती है I