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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
मात्र उनके श्लोक बोलकर पूजा की जाती है। देववंदनमें देव-देवी के कायोत्सर्ग तथा उनकी थोय बोलनी होती है। इसलिए देववंदन में ही उनका कायोत्सर्ग तथा स्तुति बोलनी है। वे देववंदन को भावानुष्ठान बताते हैं, तो वहां क्यों देव-देवीके कायोत्सर्ग व उनकी थोय करते हो? पूजनमें श्लोक बोलकर पूजा की जाती है, इसमें भी श्लोक (स्तुति) भावपूजा ही है। उनकी द्रष्टि से तो भावानुष्ठान ही कहलाती है तो उसमें स्तुति क्यों करते हैं?
क्या जिनमंदिर व प्रतिक्रमण में होनेवाला देववंदन भावानुष्ठान है और प्रतिष्ठा, दीक्षा व उपधान की क्रिया में होनेवाला देववंदन द्रव्यानुष्ठान है ? यह उनकी दोहरी नीति नहीं है? वास्तव में मुनिश्री ने अपने मत की पुष्टि के लिए कल्पना करके द्रव्यानुष्ठान तथा भावानुष्ठान के भेद बताए हैं । इस प्रकार किसी भी शास्त्रकारने भेद नहीं बताए हैं।
यदि उनकी अनुष्ठानोंकी व्याख्या काल्पनिक नहीं हो तो मुनिश्री को यह व्याख्या किस शास्त्रोमें है, उसका नाम देना चाहिए। इसके साथ ही उसमें प्रस्तुत व्याख्या का पाठ स्पष्ट रुप से प्रस्तुत करना चाहिए।
दीक्षा भी भावानुष्ठान है । क्योंकि, योगद्रष्टि समुच्चय ग्रंथ में पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजाने गाथा-१० की टीकामें कहा है कि,
प्रव्रज्याः ज्ञानयोगप्रतिपत्तिरुपत्वात् । -प्रव्रज्या ( दीक्षा) ज्ञानयोग के स्वीकार रुपहै।
इस गाथामें पू.आ.भ.श्री ने कहा है कि, प्रव्रज्या स्वीकार करते समय अतात्विक कोटि का सामर्थ्य योग होता है। इसमें आत्मा का बल (सामर्थ्य) विशेषकर उल्लसित होता है। इसे सामर्थ्ययोग कहते हैं । दीक्षा स्वीकार करते समय साधक सांसारिक बंधनों को तोड़ने के लिए उल्लसित होता है और आत्महितकर आज्ञायोग को प्राप्त करने की उत्सुकतावाला होता है। इसलिए