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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी यदि चतुर्थ स्तुति अविहित एवं निरुपयोगी - निरर्थक हो, तो 'वेयावच्चगराणं' आदि सूत्रों की रचना क्यों की गई होगी? और उनका भावार्थ समझाने के लिए ललितविस्तराकारश्री ने क्यों प्रयत्न किया होगा? यहपाठक स्वयं विचार कर सकते हैं। सूत्र रचना एवं सूत्र के तात्पर्यार्थ को बताने का प्रयत्न किया गया है। यह तो साक्षात् दिखाई दे रहा है। इसलिए सम्यग्दृष्टि देव-देवीके कायोत्सर्ग एवं उनकी थोय की विहितता स्वयं सिद्ध हो जाती है। सूत्रकार परमर्षि निरर्थक प्रवृत्ति नहीं कर सकते और टीकाकार भी असमंजस प्रवृत्ति हो तो उसे आगे नहीं बढा सकते, यह तो सुज्ञजन सहज ही समज सकते हैं।
प्रश्न : साधक 'वैयावच्चगराणं०' आदि पदों के पाठपूर्वक कायोत्सर्ग तो करे, किन्तु वैयावच्चकारी आदि देवताओं को वह कायोत्सर्ग ज्ञात न हो तो, (अर्थात् यह साधक मुझे दृष्टि में रखकर कायोत्सर्ग करता है, यह ज्ञान न हो तो) कायोत्सर्गकारक साधक को विघ्नोपशम आदि फल कैसे मिल सकते हैं?
उत्तर : इस प्रश्न का समाधान देते हुए ललितविस्तरा ग्रंथ में कहा गया है कि.....
"(ल. वैयावृत्त्यकादिभिरज्ञातेऽपि पुण्यबन्धः) नवरमेषां वैयावृत्त्यकराणां तथा तद्भाववृद्धिरित्युक्तप्रायम् । तदपरिज्ञानेऽप्यस्मात् तच्छुभसिद्धाविदमेव वचनं ज्ञापकम्।
भावार्थ:- यहां इतना विशेष तौर पर कहना है कि, वैयावच्चकारी आदि सम्यग्दृष्टि देवताओं को प्रस्तुत कायोत्सर्ग द्वारा वैयावच्च, शांति-समाधिकरण का भाव बढता है, यह कथितप्रायः है।
प्रश्न : उन सम्यग्दृष्टि देवों को 'मुझे द्रष्टिमें रखकर कायोत्सर्ग हो रहा है ऐसा ज्ञान हो ही यह नियम नहीं है। इसलिए संभव है कि साधक द्वारा किए जानेवाले कायोत्सर्ग का ज्ञान भी न हो, तो ऐसी स्थिति में उन्हें