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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी (३) कुछ व्यक्ति पांच शक्रस्तव, आठ थोय की चैत्यवंदना एवं पांच अभिगम, तीन प्रदक्षिणा, पूजादि संयुक्त, इसे उत्कृष्ट चैत्यवंदना मानते है।
उपरोक्त तीनों मत पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजीने बताए हैं। परन्तु तीनों मत में से पू.आ.भ.श्रीने स्वयं को कौन सा मत स्वीकार है और कौना सा नहीं, इस विषय में कुछ नहीं कहा है।
इसलिए पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजी ने अपने मत से चतुर्थ स्तुति को अर्वाचीन नहीं कहा है। परन्तु किसी अन्य के मत से कहा है। उन्हें स्वयं तो चैत्यवंदन महाभाष्य ग्रंथमें चैत्यवंदन-देववंदनमें जो विधि और चैत्यवंदन के जो प्रकार दर्शाए गए हैं, वे उसी स्वरुप में स्वीकार हैं।
प्रश्न : ऐसा आप किस आधार पर कहते हैं ?
उत्तर : पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजी स्वयं पंचाशक प्रकरण की वृत्तिमें एक प्रश्नके उत्तरमें जो कहते हैं, उसके आधार पर कहता हूं। यह निम्नानुसार है।
"तथा संवेगादिकारणत्वादशठसमाचरितत्वाज्जीतलक्षणस्येहापद्यमानत्वाच्चैत्यवन्दनभाष्यकारादिभिरेतत्करणस्य समर्थितत्वाच्च तदधिकतरमपि तन्नाऽयुक्तम् । न च वाच्यं भाष्यकारादिवचनान्यप्रमाणानि, तदप्रामाण्ये सर्वथाऽऽगमानवबोधप्रसङ्गात् ॥"
भावार्थ : (सूत्र में चैत्यवंदन एकही प्रकार का कहा गया है, तो चैत्यवंदन के जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट तीन भेद क्यों दर्शाए गए हैं ? इस पूर्वपक्षको उपरोक्त पाठ से पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजी जवाब देते हैं...)
'संवेग आदि का कारण होने से तथा अशठ पुरुषों ने मान्य करके आचरण में रखा होने से जीत व्यवहार के लक्षण से युक्त होने के कारण व चैत्यवंदन भाष्यकार आदि ने समर्थन किया होने से अधिकतर भी चैत्यवंदन के (भेद) अयुक्त नहीं।
आपको यह भी नहीं कहना कि, भाष्यकार आदि के वचन अप्रमाणित है। क्योंकि, उनके वचनोंको अप्रमाणभूत मानने से आगम शास्त्रों का बोध भी किसी