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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
असत्य छोड़ने की तैयारी नहीं है, उसी की यह निशानी है। टीकाकार परमर्षिने अत्यंत स्पष्ट रुपमें शंका के समाधान किए हैं । फिर भी मुनिश्री जयानंदविजयजी इस विषयमें कुतर्क करते हुए लिखते हैं कि,
"और रत्नशेखरसूरीश्वरजीने भी मोक्ष मांगने का निषेध किया है। उनके समयमें भी 'सम्मदिट्ठी देवा दिन्तु समाहिं च बोहिं च' पद का निषेध करनेवाले होंगे तभी तो उन्होंने इस पद की टीका में लिखा है कि 'कश्चिद् ब्रुते के देवा: समाधि बोधि दधाने किं समर्था न वा' इत्यादि प्रश्न करके इस पद की सिद्धि के लिए उत्तर देकर अंत में 'नैव कश्चिद् दोष:' इसमें कोई दोष नहीं ऐसा लिखा है । इसका अर्थ यही होता है कि उनके समय में भी इस पद का निषेध करनेवाले थे। इस पद की सिद्धि में जो मेतारज ऋषि का दृष्टांत दिया गया है, तो क्या मेतारज ऋषिने कभी भी देवता से समाधि-बोधि के लिए प्रार्थना की है ? ऐसा कोई उल्लेख है ? पूर्व भवके दिए गए संकेत के कारण देव ने आकर उनको भाव से जागृत किया है, इस प्रकार कहीं प्रत्येक देव से समाधि-बोधि मांगनेका नियम नहीं है। "
मुनि श्री जयानंदविजयजी की आग्रही मनोदशा तथा शास्त्रकार परमर्षियों के विधानों में भी घातकशैली से कुर्तक करने की रीति पाठकगण उपरोक्त लेख से समझ सकेंगे ।
कोई व्यक्ति किसी शास्त्रीय बात का निषेध करनेवाला है, उससे शास्त्रीय बात अशास्त्रीय नहीं बन जाती । शास्त्रकार सभी शंकाओ के समाधान देते ही हैं और इससे शास्त्रीय बातें स्पष्ट होती हैं । शंकाकार थे, इसीलिए समाधान करना पड़ा और इसीलिए समाधान अधूरा माना जाए, उसे निर्विकल्प ढंग से स्वीकार नहीं कर लिया जाए, ऐसी बात सुज्ञजन नहीं कर सकते, अज्ञानी कदाग्रही लोग ही कर सकते हैं।
३६३ पाखंडी भी भगवान की बात का विरोध करते थे । इसलिए भगवान
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